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________________ पवयणसारी । गुरुविरहितवासे वा। किं कृत्वा ? सामण्णे निजशुद्धात्मानुभूतिलक्षणनिश्चयचारित्रे छेदविहीणो भवीय छेदबिहीणो भूत्वा रागादिरहितनिजशुद्धात्मानुभूतिलक्षण निश्चयचारित्रच्युतिरूपछेदरहितो भूत्वा । तथाहि-गुरूपार्वे यावन्ति शास्त्राणि ताबन्ति पठित्वा तदनन्तरं गुरु पृष्टवा च समशीलतपोधन: सह भेदाभेदरत्नत्रयभावनया भव्यानामानन्दं जनयन् तपः श्रुतसत्वकत्वसन्तोषभावनापञ्चकं भावयन् तीर्थकरपरमदेवगणधरदेवादिमहापुरुषाणां चरितानि स्वयं भावयन् परेषां प्रकाशयश्च विहरतीति भावः ।।२१३।। उत्थानिका-आगे निर्विकार मुनिपने के भङ्ग के उत्पन्न करने वाले निमित्त कारणरूप परद्रव्य के सम्बन्धों का निषेध करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(समणो) शत्रु मित्र में समान भावधारी साधु (णिबंधाणि परिहरमाणी) चेतन अचेतन मिश्र पदार्थों में अपने रागद्वेष रूप संबंधों को छोड़ता हुआ (सामण्णे छेदविहीणो भवीय) अपने शुद्धात्मानुभव रूपी मुनिपद में छेद रहित होकर अर्थात निज शुद्धात्मा का अनुभवनरूप निश्चयचारित्र में भङ्गन करते हुए (अधिवासे) व्यवहार से अपने अधिकृत आचार्य के संघ में तथा निश्चय से अपने ही शुद्धात्मारूपी घर में (व विवासे) अथवा गुरु-रहित स्थान में (णिच्चं विहरतु) नित्य विहार करे। साधु अपने गुरु के पास जितने शास्त्रों को पढ़ना हो उत्तने शास्त्रों को पढ़कर पश्चात् गुरु की आज्ञा लेकर अपने समान शील और तप के धारी साधुनों के साथ निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय को भावना से भन्य जीवों को आनन्द पैदा करता हुआ तथा तप, शास्त्र, वीर्य, एकत्व और संतोष इन पांच प्रकार की भावनाओं को भाता हुआ तीर्थकरपरमदेव, गणधरदेव आदि महान पुरुषों के चारित्र को स्वयं विचारता हुआ और दूसरों को प्रकाश करता हुआ विहार करता है, यह भाव है ॥२१३॥ अथ श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनत्वात् स्वद्रव्य एवं प्रतिबन्धो विधेय इत्युपदिशति चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाणम्मि दंसणमुहम्मि । पयदो मूलगुणेसु य जो सो पडिपुण्णसामण्णो ॥२१४॥ चरति निबद्धो नित्यं श्रमणो ज्ञाने दर्शनमुखे । प्रयतो मूलगुणेषु च यः स परिपूर्णधामण्यः ॥२१४।। एक एव हि स्वद्रव्यप्रतिबन्ध उपयोगमार्जकत्वेन भाजितोपयोगरूपस्य श्रामण्यस्य परिपूर्णतायतनं, तत्सद्भावादेव परिपूर्ण श्रामण्यम् । अतो नित्यमेव ज्ञाने दर्शनादौ च प्रतिबद्धन मूलगुणप्रयततया चरितव्यं ज्ञानदर्शनस्वभावशुद्धात्मद्रव्यप्रतिबद्धशुद्धास्तित्वमात्रेण वर्तितव्यमिति तात्पर्यम् ॥२१४॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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