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________________ पवयणसारो ] [ ३०३ यो हि नाम संसारनामायमात्मनस्तथाविधः परिणामः स एव द्रव्यकर्मश्लेषहेतुः । अथ तथाविधपरिणामस्यापि को हेतु:, द्रव्यकर्म हेतुः तस्य द्रव्यकर्मसंयुक्तश्वेनेवोपलम्भात् । एवं सतीतरेतराश्रयदोषः न हि । अनादिप्रसिद्धद्रव्य कर्माभिसंबद्धस्यात्मनः प्राक्तनद्रव्यकर्मणस्तत्र हेतुत्वेनोपादानात् एवं कार्यकारणभूतनवपुराणद्रव्य कर्मत्वादात्मनस्तथाविधपरिणमो द्रव्यमेव । तथात्मा चात्मपरिणामकर्तृत्वाद्द्रव्य कर्मकर्ता व्युपचारात् ॥ १२१ ॥ भूमिका -- अब, परिणमनस्वरूप संसार में किस कारण से पुद्गल का सम्बन्ध होता है कि जिससे उसके ( संसार के ) मनुष्यादि पर्यात्मकपना होता है ? इसका यहां समाधान करते हैं अन्वयार्थ --- [ कर्ममलीमसः आत्मा ] कर्म से मलिन आत्मा [ कर्म संयुक्तं परिणाम ] कर्मसंयुक्त परिणाम को (द्रव्यकर्म के संयोग से होने वाले अशुद्ध परिणाम को ) [ लभते ] प्राप्त करता है, [ततः ] उससे [ कर्म श्लिष्यति ] कर्म चिपक जाता है ( द्रव्य कर्म का बंध होता है), [तस्मात् तु | इसलिये [ परिणामः कर्म ] परिणाम कर्म है ! टीका - संसार' नामक जो यह आत्मा का तथाविध ( उस प्रकार का परिणाम है। परिणाम का हेतु क्योंकि द्रव्यकर्मी ' वही द्रव्यकर्म के चिपकने का ( बन्ध का ) हेतु है । कौन है ? ( इसके उत्तर में कहते हैं कि ) द्रव्यकर्म संयुक्तता से ही वह (अशुद्ध परिणाम ) कर्म है । अब, उस प्रकार के उसका हेतु है, शंका- ऐसा होने से इतरेतराश्रयदोष' आयगा, क्योंकि अनाविसिद्ध द्रव्यकर्म के साथ सम्बद्ध आत्माका जो पूर्वका द्रव्यकर्म है उसका वहां हेतुरूप से ग्रहण ( स्वीकार ) किया गया है। इसप्रकार नवीन द्रव्यकर्म जिसका कारणभूत है, और पुराना द्रव्यकर्म जिसका कारणभूत है, ऐसा आत्मा का तथाविध परिणाम होने से, वह उपचार से द्रव्यकर्म ही है, और आत्मा भी अपने परिणाम का कर्त्ता भी उपचार से है ।। १२२ ।। १. द्रव्यकर्म के संयोग से ही अशुद्ध परिणाम होते हैं, द्रव्यकर्म के बिना वे कभी नहीं होते। इसलिये द्रव्यकर्म अशुद्ध परिणाम का कारण है । २. एक असिद्ध बात को सिद्ध करने के लिये दूसरी असिद्ध बात का आश्रय लिया जाय, और फिर उस दूसरी बात को शिद्ध करने के लिये पहली का आश्रय लिया जाय, सो इस तर्कदोष को इतरेतराश्रमदोष कहा जाता है । द्रव्यकर्म का कारण अशुद्ध परिणाम कहा है। फिर उस अशुद्ध परिणाम के कारण के सम्बन्ध में पूछे जाने पर, उसका कारण पुनः द्रव्यकर्म कहा है, इसलिये शंकाकार को शंका होती है कि इस बात में इतरेतराश्रय दोष आता है । ३. नवीन द्रव्यकर्म का कारण अशुद्ध आत्मपरिणाम है, और उस अशुद्ध आत्म-परिणाम का कारण बहु का वही (नवीन) द्रव्यकर्म नहीं किन्तु पहले का ( पुराना ) द्रव्यकर्म है, इसलिये इसमें इतरेतराश्रय दोष नहीं आता ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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