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[ पत्रयणसारो
तात्पर्यवृत्ति
अथ संसारस्य कारणं ज्ञानावारणादि द्रव्यकर्म तस्य तु कारणं मिथ्यात्व रागादिपरिणाम इत्यावेदयति
आदा निर्दोषपरमात्मा निश्चयेन शुद्धबुद्धकस्वभावोऽपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशान् कम्ममलिमसो कर्ममलीमसो भवति । तथा भवन्सन किं करोति ? परिणामं लहदि परिणामं लभते । कथम्भूतं ? कम्मसंजुत्तं कर्मरहितपरमात्मनो विसदृशकर्मसंयुक्तं मिथ्यात्वरागादिविभाव परिणामं तत्तो सिलिसदि कम्मं ततः परिणामानु लिप्यति बध्नाति । किं ? कर्म । यदि पुननिर्मलविवेकज्योतिःपरिणामेन परिणमति तदा तु कर्म मुञ्चति तम्हा कम्मं तु परिणामो तस्मात् कर्म तु परिणामः । यस्माद्रागादिपरिणामेन कर्म बध्नाति तस्माद्रागाविधिकल्पस्य मानकसंस्थानोन सरागमरिणाम एवं कर्मकारणत्वादुपचारेण कर्मेति भण्यते । ततः स्थितं रागादिपरिणामः कर्मबन्धकारणमिति ।। १२१।।
उत्थानिका -- आगे कहते हैं कि संसार का कारण ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्म है और इन द्रव्यकर्म के बंध का कारण मिथ्यादर्शन व राग आदि रूप परिणाम हैं
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( आदा कम्ममलिमसो) आत्मा द्रव्य कर्मो से अनादि काल से मंला है इसलिये (कम्मसंजुत्तं परिणामं ) मिथ्यात्व आदि भाव-कर्म रूप परिणाम ( लहूदि) प्राप्त होता है । ( तत्तो ) उस मिथ्यात्व आदि परिणाम से ( कम्म सिलिसदि ) पुद्गल कर्म जीव के साथ बंध जाता है (तम्हा) इसलिये ( परिणामों) मिथ्यात्व व रागादि रूप परिणाम हो ( कम्मं दु) भावकर्म है अर्थात् कर्म के बन्ध का कारण है। निश्चयनय से यह दोष रहित परमात्मा शुद्धबुद्ध एक स्वभाव वाला होने पर भी व्यवहार नयसे अनादि कर्मबन्ध के कारण कर्मो से मेला हो रहा है। इसलिये कर्म रहित परमात्मा से विरुद्ध कर्मसहित मिथ्यात्व व रागादि परिणाम को प्राप्त होता है— इस परिणाम से द्रव्य कर्मो को बांधता है । और जब निर्मल भेद - विज्ञान की ज्योतिरूप परिणाम में परिणमता है तब कर्मों से छूट जाता है, क्योंकि रागद्वेष आदि परिणाम से कर्म बंधता है । इसलिये राग आदि विकल्परूप जो भावकर्म या सरागपरिणाम है सो ही द्रव्यकर्मो का कारण होने से उपचार से कर्म कहलाता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि राग आदि परिणाम ही कर्म बन्ध का कारण हैं ॥ १२१ ॥
अम परमार्थादात्मनो द्रव्यकर्माकर्तृत्वमुद्योतयति -
परिणामी सयमादा सा पुण किरियत्ति होदि जीवमया ।
किरिया कम्म त्ति मदा तम्हा कम्मस्स ण दु कत्ता ॥ १२२ ॥
परिणामः स्वयमात्मा सा पुनः क्रियेति भवति जीवमयी ।
क्रिया कमति मता तस्मात्कर्मणो न तु कर्ता ॥ १२२ ॥
१. तु ( ज ० ० )