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________________ पवमणसारो ] [ ३३१ न च गुणः । कस्मात् ? गुणस्याविनश्वरत्वात् अयं च विनश्वरो। नैयायिकमतानुसारी कश्चिद्वदत्याकाशगुणोऽयं शब्दः । परिहारमाहू-आकाशगुणत्वे सत्यमूत्तों भवति । अमूर्तश्च श्रवणेन्द्रियविषयो न भवति, दृश्यते च श्रवणेन्द्रियविषयत्वं । शेषेन्द्रिविषयः कस्मान्न भवतीति चेत् ? अन्येन्द्रिविषयोऽन्ये न्द्रियस्य न भवति वस्तुस्वभावादेव रसादिविषयवत् । पुनरपि कथंभूतः ? चित्तो चित्रः भाषात्मकाभाषात्मकरूपेण च प्रायोगिक वैनसिकरूपेण च नानाप्रकारः तच्च । “सद्दो खंधप्पभवो” इत्यादि माथायां पंचास्तिकाये व्याख्यातं तिष्ठत्यत्रालं प्रसंगेन ॥१३२॥ उत्थानिका-आगे मूर्तिक पुद्गल द्रव्य के गुणों को कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(सहमादो पढवीपरियंतस्स) मूक्ष्म परमाणु से लेकर पृथ्वी पर्यंत (पोग्गलस्स) पुद्गल द्रव्य के (वण्णरसगंधफासा) वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, (विजंते) विद्यमान होते हैं । (य) और (सद्दो) शब्द है (सो पोग्गलो चित्तो) वह नाना प्रकार का है और पौगलिक है। पुद्गल द्रव्य के विशेष गुण स्पर्श रस गंध वर्ण हैं। वे पुद्गल सूक्ष्म परमाणु से लेकर स्थूल पृथ्वी स्कंध रूप तक हैं। जैसे इस गाथा में कहा है जिनेन्द्र देव ने पुद्गल को छह प्रकार कहा है, पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियों के विषय, कार्मणवर्गणा और परमाणु । जैसे सर्व जीवों में अनन्तज्ञानादि-चतुष्टय-विशेष लक्षण यथासंभव साधारण हैं तसे ही वर्णावि चतुष्टय रूप विशेष लक्षण यथासम्भव सर्व पुद्गलों में साधारण हैं और जैसे अनन्तज्ञानादि चतुष्टय मुक्तजीव में प्रगट हैं सो अतीन्द्रियज्ञान का विषय है । हमको अनुमान से सथा आगम प्रमाण से मान्य हैं तैसे ही शुद्ध परमाणु में वर्णादि-चतुष्टय भी अतीन्द्रिय ज्ञान का विषय है। हमको अनुमान से तथा आगम से मान्य हैं। जैसे यहो अनन्तचतुष्टय संसारी जीव में रागद्वेषादि चिकनाई के कारण कर्मबंध होने के वश से अशुद्धता रखते हैं तैसे ही स्निग्ध रूक्ष गुण के निमित्त से दो अणु तीन अणु आदि को बंध अवस्था में वर्गादि-चतुष्टय भी अशुद्धता को रखते हैं। जैसे रागद्वेषावि रहित शुद्ध आत्मा के ध्यान से इन अनन्तज्ञानादि-चतुष्टय की शुद्धता हो जाती है तैसे ही यथायोग्य स्निग्ध रूक्ष गुण के न होने पर बन्धन न होते हुए एक पुद्गल परमाणु की अवस्था में शुद्धता रहती है। और जैसे नरनारक आदि जीव की विभावपर्याय हैं तैसे यह शब्द मी पुद्गल की विभावपर्याय है, गुण नहीं है क्योंकि गुण अविनाशी होता है परन्तु यह शब्द विनाशीक है। यहां नयायिक मत के अनुसार कोई कहता है कि यह शब्द आकाश का गुण है, इसका खंडन करते हुए कहते हैं कि यदि शब्द आकाश का गुण हो तो शब्दअमूर्तिक हो जावे । जो अमूर्त वस्तु है वह कर्ण इन्द्रिय से ग्रहण नहीं हो सकती और यह प्रत्यक्ष प्रगट है कि शब्द कर्ण
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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