SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 358
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ पवयणसारो "यदि शब्द युद्गल को पर्याय हो तो वह पृथ्वीस्कंध की भांति स्पर्शनादिक इंद्रियों का भी विषय होना चाहिये, अर्थात् जैसे पृथ्वीस्कंध रूप पुरगलपर्याय सर्व इन्द्रियों से ज्ञात होती है उसी प्रकार शब्दरूप पुद्गल पर्याय भी सभी इन्द्रियों से ज्ञात होनी चाहिये" (ऐसा तर्फ किया जाय तो) ऐसा भी नहीं है, क्योंकि जल (पुद्गल को पर्याय है, फिर भी) नाणेन्द्रिय का विषय नहीं है, अग्नि घ्राणेन्द्रिय तथा रसनेन्द्रिय का विषय नहीं है और वायु घ्राण, रसना तथा चक्षुइन्द्रिय का विषय नहीं है (इसलिये नाक तथा जीभ से अग्राह्य है) और वायु, गंध, रस वर्ण रहित है (इसलिये नाक, जीभ तथा आंखों से अग्राह्य है) क्योंकि सभी पुद्गल स्पर्शादिचतुष्क युक्त (स्पर्श-रस-गंध-वर्ण युक्त) स्वीकार किये गये हैं । क्योंकि जिनके स्पर्शाविचतुष्क व्यक्त हैं ऐसे (१) चन्द्रकान्तमणि को, (२) अरणिको और (३) जौ को जो पुद्गल उत्पन्न करते हैं उन्हीं के द्वारा (१) जिसकी गंध अव्यक्त है ऐसे पानी को, (२) जिसकी गंध तथा रस अन्यक्त है ऐसी अग्नि की और (३) जिसके गंध, रस तथा वर्ण अव्यक्त हैं ऐसी शरमायु की उत्पत्ति होती देखी जाती है । और कहीं (किसी पर्याय में) किसी गुण की कादाचित्क परिणाम को विचित्रता के कारण होने वाली व्यक्तता या अन्यक्तता नित्य द्रव्यस्वभाव का प्रतिघात नहीं करती। (अर्थात् अनित्यपरिणाम के कारण होने वाली गुण की प्रगटता और अप्रगटता नित्य व्रध्यस्वभाव के साथ कहीं विरोध को प्राप्त नहीं होती। इसलिये शब्द पुद्गल की पर्याय ही है ॥१३२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ मूर्तपुद्गलद्रव्यस्य गुणानावेदयति, वण्णरसगन्धफासा विज्जते पोग्गलस्स वर्णरसगन्धस्पर्शा विद्यन्ते । कस्य ? प्रदगलस्य। कथम्भूतास्प? सुहमादो पुढवीएरियंतस्स य। "पुढवी जलं च छाया च उरिदियविसयकम्मपरमाणू । छविहमेयं भणियं पोग्गलदब्बं जिणबरेहि"॥ इति गाथाकथितक्रमेण परमाणु लक्षणसूटमस्वरूपादेः पृथ्वीस्कन्धलक्षणस्थूलस्वरूपपर्यन्तस्य च । तथाहि—यथानन्तज्ञानादिचतुष्टयं विशेषलक्षणभूतं यथासम्भवं सर्वजीवेषु साधारणं तथा वर्णादिचतुष्टयं विशेषलक्षणभूतं यथासम्भवं सर्वपुद्गलेषु साधारणम् । यथैव चानन्तज्ञानादिचतुष्टयं मुक्तजीवेऽतीन्द्रियज्ञानविषयमनुमानगम्यमागमगम्यं च, तथा शुद्धपरमाणुद्रव्ये वर्णादिचतुष्टयमप्यतीन्द्रियज्ञानविषयमनुमानगम्यमागमगम्यं च । यथा वानन्तचतुष्टयस्य संसारिजीवे रागादिस्नेहनिमित्तेन कर्मबन्धवशादशुद्धत्वं भवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तन द्वयणुकादिबन्धावस्थायामशुद्धत्वम् । यथा वानन्तज्ञानादिचतुष्टयस्य रागादिस्नेहरहितशुद्धात्मध्यानेन शुद्धत्वं भवति तथा वर्णादिचतुष्टयस्यापि स्निग्धगुणाभावे बन्धने सति परमाणु पुद्गलावस्थायां शुद्धत्वमिति। सद्दो सो पोग्गलो यस्तु शब्द: स पौद्गलः यथा जीवस्य नरनारकादिविभावपर्यायाः तथायं शब्द: पुद्गलस्य विभावपर्यायो
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy