SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ पवयणसारो चारित्र के धर्मपना व्यवस्थापित किया था तथा "परिणमदि जेण दवं" इत्यादि सूत्र से आत्मा के धर्मपना कहा था इत्यादि सो सब शुद्धोपयोग के प्रसाद से साधने योग्य है। अब यह कहते हैं कि निश्चयरत्नत्रय में परिणमन करता हुआ आत्मा ही धर्म है। अथवा दूसरी पातनिका यह है कि सम्यक्त्व के बिना मुनि नहीं होता है ऐसे मिथ्यादृष्टि श्रमण से धर्म सिद्ध नहीं होता है, तब फिर किस तरह श्रमण होता है ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हुए इस ज्ञानाधिकार को संकोच करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो समणो) जो साधु (णिहदमोहदिट्ठी) तत्वार्थ श्रद्धानरूप व्यवहार सम्यक्त्व के द्वारा उत्पन्न निश्चयसम्यग्दर्शन में परिणमन करने से दर्शनमोह को नाश कर चुका है, (आगमकुसलो) निर्दोष परमात्मा से कहे हुए परमागम के अभ्यास से उपाधि रहित स्वसंवेदनज्ञान की चतुराई से आगमज्ञान में प्रवीण है, (विरागचरियम्हि अन्भुदिठदो) व्रत, समिति, गुप्ति आदि बाहरी चारित्र के साधन के वश से अपने शुद्धारमा में निश्चल परिणमन रूप वीतरागचारित्र में घर्तने के द्वारा परम वीतरागचारित्र में भले प्रकार उद्यमी है तथा (महप्पा) मोक्ष रूप महा पुरुषार्थ को साधने के कारण महात्मा है वही (धम्मो त्ति विसेसिदो) जीना, मरना, लाभ, अलाम आदि में समता की भावना में परिणमन करने वाला श्रमण ही अभेदनय से मोह क्षोभ रहित आत्मा का परिणामरूप निश्चयधर्म कहा गया है ॥२॥ तात्पर्यवृत्ति अथैवंभूतनिश्चयरत्नत्रयपरिणतमहातपोधनस्य योऽसौ भक्ति करोति तस्य फलं दर्शयति जो तं विट्ठा तुट्ठो अग्भुत्तिा करेंदि सक्कारं। वंदणणमंसणाविहि तत्तो सो धम्ममादियदि ॥६२-१॥ जो तं विठ्ठा तुट्ठो यो भव्यवरपुण्डरीको निरुपरागशुद्धात्मोपलम्भलक्षणनिश्चयधर्मपरिणत पूर्वसूत्रोक्तं मुनीश्वरं दृष्ट्वा तुष्टो निर्भरगुणानुरागेण संतुष्टः सन् । किं करोति ? अम्भुद्वित्ता करेवि सक्कारं अभ्युत्थानं कृत्वा मोक्षसाधकसम्यवत्वादिगुणानां सत्कारं प्रशंसां करोति वंवणणमंसणाविहि तत्तो सो धम्ममावियदि "तवसिद्ध पयसिद्ध" इत्यादि वंदना भण्यते, नमोस्त्विति नमस्कारो भण्यते, तत्प्रभृतिभक्तिविशेषः तस्माद्यतिवरात्स भव्यः पुण्यमादत्ते पुण्यं गृह्णाति इत्यथैः ।।६२-१॥ उत्थानिका-आगे ऐसे निश्चयरत्नत्रय में परिणमन करने वाले महामुनि को जो कोई भक्ति करता है उसके फल को दिखाते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो तं दिटठा तुट्ठो) जो कोई भव्यों में प्रधान वीतराग शुद्धात्मा के अनुभवरूप निश्चयधर्म में परिणामने वाले सूत्र में कहे हुए मुनीश्वर को देखकर पूर्ण गुणों में अनुरागभाव से संतोषी होता हुआ (अग्भुदिछत्ता) उठकर (वंदणणमंसणादिहिं सक्कारं करेवि) "तव सिद्ध जयसिद्धे" इत्यादि वंदना तथा "नमोस्तु" रूप नमस्कार इत्यादि भक्ति विशेषों के द्वारा सत्कार या प्रशंसा करता है (सो तत्तो धम्ममादियवि) सो भव्य उस यतिवर के निमित्त से धर्म प्राप्त करता है ॥२॥१॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy