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________________ पवयणसारो [ २११ तात्पर्यवृत्ति अथ तेन पुण्येन भवान्तरे कि फलं भवतीति प्रतिपादयति तेण जरा व तिरिच्छा देवि या माणुस गदि पय्या। विहविस्सरियेहि सया संपुण्णमणोरहा होति ।।६२-२२॥ तेण परा व तिरिच्छा तेन पूर्वोक्तपुण्येनात्र वर्तमानभवे नरा वा तिर्यञ्चो वा देवि वा माणति गदि पय्या भवान्तरे देवीं वा मानु राति पापा दिविटियहि मया संपण्णमणोरहा होति राजाधिराजरूपलावण्यसौभाग्यपुत्रकलत्रादिपरिपूर्ण विभूतिविभवो भण्यते, आज्ञाफलमैश्वर्य भण्यते, ताभ्यां विभवैश्वर्याभ्यां संपूर्णमनोरथा भवन्तीति । तदेव पुण्यं भोगादिनिदानरहितत्वेन यदि सम्यक्त्वपूर्वकं भवति तहि तेन परम्परया मोक्ष लभन्त इति भावार्थः ।।६२-२॥ इति श्रीजयसेनाचार्य कृतायां तात्पर्यवृत्ती पूर्वोक्त प्रकारेण "एस सुरासुरमसिंदवंदिय" इतीमां गाथामादि कृत्वा द्वासप्ततिगाथाभिः शुद्धोपयोमाधिकारः, तदनन्तरं "देवजदिगुरुपूजासु" इत्यादि पञ्चविंशतिगाथाभिनिकण्ठिकाचतुष्टयाभिधानो द्वितीयोऽधिकार: ततपत्र "सत्तासंबंधे" इत्यादि सम्यक्त्वकथनरूपेण प्रथमा गाथा, रत्नत्रयाधारपुरुषस्य धर्मः सम्भवतीति "जो णिहदमोहदिद्यो" इत्यादि द्वितीया चेति स्वतन्त्रमाथाद्वयम्, तस्य निश्चयधर्मसंज्ञतपोधनस्य योऽसौ भक्ति करोति तत्कलकथनेन "जो तं दिट्ठा" इत्यादि गाथाद्वयम् । इत्यधिकार-द्वयेन पृथग्भूतगाथाचतुष्टयसहितेनकोत्तरशतगाथाभि-नितत्त्वप्रतिपादक-नामा प्रथमो महाधिकारः समाप्तः ॥१॥ उत्थानिका--आगे कहते हैं कि उस पुण्य से परभव में क्या फल होता है-- अन्वय सहित विशेषार्थ-(तेण) उस पूर्व में कहे हुए पुण्य से (णरा वा सिरिन्छा) वर्तमान के मनुष्य या तिथंच (देवि या माणुसि गवि पय्या) मरकर अन्यभव में देव या मनुष्य की गति को पाकर (विहविस्सरियहि सया संपुण्णमणोरहा होंति) राजाधिराज-सम्बन्धी रूप, सुन्दरता, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री आदि से पूर्ण विभूति तथा आज्ञारूप ऐश्वर्य से सफल मनोरथ होते हैं। वही पुण्य यदि भोगों के निदान विना सम्यकदर्शन पूर्वक होता है तो उस पुण्य से परम्परा मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह भारार्थ है ॥६॥२॥ इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य कृत तात्पर्य-वृत्ति टीका में पूर्व में कहे प्रमाण "एस सुरासुरमणुसिक्वंदिय" इस गाथा को आदि लेकर ७२ (बहत्तर) गाथाओं में शुद्धोपयोग का अधिकार है, फिर "देववदि गुरु पूजासु" इत्यादि पच्चीस गाथाओं से ज्ञानकठिका चतुष्टय नाम का दूसरा अधिकार है फिर "सत्तासंबद्धेदे" इत्यादि सम्यकदर्शन का कथन करते हुए प्रथम गाथा, तथा रत्नत्रय के धारी पुरुष के हो धर्म सम्भव है, ऐसा कहते हुए "जो णिहदमोहविट्ठी' इत्यादि दूसरी गाथा है, इस तरह दो स्वतन्त्र गाथाएं हैं। उस निश्चयधर्मधारी तपस्वी की जो कोई भक्ति करता है उसका फल कहते हुए "जो तं पिट्ठा" इस तरह दो अधिकारों से व पृथक चार गाथाओं से, सब एक-सौ-एक गाथाओं से यह जानतत्वप्रतिपादक नामक प्रथम अधिकार समाप्त ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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