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पवयणसारो ]
चार अन्तर अधिकारों में शुद्धोपयोग का अधिकार है । आगे पच्चीस गाथा तक ज्ञान-कण्ठिकाचतुष्टय को प्रतिपादन करते हुए दूसरा अधिकार है। इसके पीछे चार स्वतन्त्र गाथाएँ हैं। इस तरह एक सौ एक गाथाओं के धारा प्रयन महा-अधिकार में समुदाय-पातनिका जाननी चाहिए।
यहाँ पहली पातमिका के अभिप्रायः से पहले ही पाँच गाथाओं तक पञ्च परमेष्ठी को नमस्कार आदि का वर्णन है, इसके पीछे सात गाथाओं तक ज्ञानकठिका चतुष्टय की पीठिका का व्याख्यान है इनमें भी पांच स्थान हैं। जिसमें आदि में नमस्कार की मुख्यता से पाँच गाथाएँ हैं, फिर चारित्र की सूचना से 'संपज्जइणिवाणं' इत्यादि तीन गाथाएँ हैं, फिर शुभ अशुभ शुद्ध उपयोग की सूचना की मुख्यता से 'जीवो परिणमादि' इत्यादि गाथाएँ दो हैं, फिर उनके फल कथन की मुख्यता से 'धम्मेण परिणप्पा' इत्यादि सूत्र दो हैं । फिर शुद्धोपयोग को ध्याने वाले पुरुष के उत्साह बढ़ाने के लिये तथा शुद्धोपयोग का फल दिखाने के लिये पहली गाथा है । फिर शुद्धोपयोगी पुरुष का लक्षण कहते हुए दुसरी गाथा है। इस तरह 'अइसइमादसमुत्थं आदि को लेकर दो गाथाएँ हैं। इस तरह पीठिका माम के पहले अन्तराधिकार में पांच स्थलों के द्वारा चौदह गाथाओं से समुदाय पातनिका कही है।
___ अनन्तर शिवकुमार नामक कोई निकट भव्य, जो स्वसंबेदन से उत्पन्न होने वाले परमानन्दमयी एक लक्षण के धारी सुखरूपी अमृत से विपरीत चतुर्गति रूप संसार के दुःखों से भयभीत है, जिसे परमभेद विज्ञान के प्रकाश का माहात्म्य प्रकट हो गया है, जिसने समस्त दुर्नय रूपी एकान्त के दुराग्रह को दुर कर दिया तथा सर्व शत्रु-मित्र आदि का पक्षपात छोड़कर व अत्यन्त मध्यस्थ होकर धर्म अर्थ काम पुरुषार्थों की अपेक्षा अत्यन्त सार और आत्महितकारी अविनाशी व पञ्चपरमेष्ठी के प्रसाद से उत्पन्न होने वाले मोक्ष लक्ष्मीरूपी पुरुषार्थ को अंगीकार करते हुए श्री वर्धमान स्वामी तीर्थङ्कर परमदेव प्रमुख भगवान् पञ्चपरमेष्ठियों को द्रव्य और भाव नमस्कार कर परम चारित्र का आश्रय ग्रहण करता हूँ, ऐसी प्रतिज्ञा करता है ।
ऐसे निकट भव्य शिवकुमार को सम्बोधन करने के लिये श्री कुन्दकुन्दाचार्य इस ग्रन्थ की रचना करते हैं।