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________________ [ पक्षणसारो द्वासप्ततिगाथासु मध्ये 'एस सुरासुर' इमां गाथामादि कृत्वा पाठक्रामेण चतुर्दशगाथापर्यन्तं पीठिका । तदनन्तरं सप्तगाथापर्यन्तं सामान्येन सर्वज्ञसिद्धिः, तदनतरं त्रयस्त्रिशद्गाथापर्यन्तं ज्ञानप्रपञ्चः । ततश्चाष्टादशगाथापर्यन्तं सुखप्रपञ्चश्चेत्यन्तराधिकारचतुष्टयेन शुद्धोपयोगाधिकारों भवति । अथ पञ्चविंशतिगाथापर्यन्तं ज्ञानकण्ठिकाचतुष्टयप्रतिपादकनामा द्वितीयोऽधिकारश्चेत्यधिकारद्वयेन, तदनन्तरं स्वतन्त्रगाथाचतुष्टयेन चकोत्तरशतगाथाभिः प्रथममहाधिकारे समुदायपातनिका ज्ञातव्या । इदानीं प्रथमपातानकाभिप्रायण थापाथ प ञ्चपरमेष्ठिनमस्कारादिप्ररूपेणप्रपञ्चः, तदनन्तरं सप्तगाथापर्यन्तं ज्ञानकण्ठिकाचतुष्टयपीठिकाव्याख्यानं क्रियते, तत्र पंचस्थलानि भवन्ति तेष्वादौ नमस्कारमुख्यत्वेन गाथापञ्चक, तदनन्तरं चारित्रसूचनमुख्यत्वेन 'संपज्जइ णिश्वाणं' इति प्रभृति गाथात्रयमथ शुभाशुभशुद्धोपयोगत्रयसूचनमुख्यत्वेन 'जीयो परिणमवि' इत्यादिगाथासूत्रद्वयमथ तत्फलकथनमुख्यतया 'धम्मेण परिणवप्पा' इति प्रभृति सूत्रद्वयम् । अघ शुद्धोपयोगध्यातुः पुरुषस्य प्रोत्साहनार्थं शुद्धोपयोगफलदर्शनार्थच प्रथम माथा, शुद्धोपयोगिपुरुषलक्षणकथनेन द्वितीया चेति 'अइसयमावसमुत्थं' इत्यादि गाथाद्वयम् । एवं पोठिकाभिधानप्रथमान्तराधिकारे स्थलपञ्चकेन चतुर्दशगाथाभिस्समुदाय- पातनिका प्रोक्ता । अथ कश्चिदासन्नभव्य: शिवकुमारनामा स्वसंवित्तिसमुत्पन्नपरमानन्दैक-लक्षणसुखामृतविपरीतचतुर्गतिसंसारदुःखभयभीत:, समुत्पन्नपरमभंदविज्ञानप्रकाशातिशय:, समस्तदुर्नयकान्तनिराकृतदुराग्रहः, परित्यक्तसमस्त शत्रु-मित्रादिपक्षपातेनात्यन्त मध्यस्थो भूत्वा धर्मार्थकामेभ्य: सारभूतामत्यन्तात्महितामविनश्वरां पञ्चपरमेष्ठिप्रसादोत्पन्नां मुक्तिश्रियमुपादेयत्वेन स्वीकुर्वाणः, श्रीवर्धमानस्वामितीर्थकरपरमदेवप्रमुखान् भगवतः पञ्चपरमेष्ठिनो द्रव्यभावनमस्काराभ्यां प्रणम्य परमचारित्रमाश्रयामीति प्रतिज्ञां करोति । उत्थानिका-इस प्रवचनसार की व्याख्या में मध्यम-रुचि-धारी शिष्य को समझाने के लिये मुख्य तथा गौण रूप से अन्तरंगतत्व (निज आत्मा) बाह्यतत्व (अन्य पदार्थ) को वर्णन करने के लिये सर्वप्रथम एक सौ एक गाथा में ज्ञानाधिकार को कहेंगे। इसके बाद एक सौ तेरह गाथाओं में दर्शन का अधिकार कहेंगे । अनन्तर सत्तानवे गाथाओं में चारित्र का अधिकार कहेंगे । इस तरह समुदाय से तीन सौ ग्यारह गाथाओं में ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप तीन महा-अधिकार हैं। अथवा टीका के अभिप्राय से सम्यग्ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र अधिकार चूलिका सहित तीन अधिकार हैं । इन तीन अधिकारों में पहले ही ज्ञान नाम के महा अधिकार में बहत्तर गाथा पर्यंत शुद्धोपयोग नाम के अधिकार को कहेंगे। इन ७२ गाथाओं के मध्य में 'एस सुरासुर' इस गाथा को आदि लेकर पाठ क्रम से चौदह गाथा पर्यंत पीठिकारूप कथन है, जिसका व्याख्यान कर चुके हैं । इसके पीछे सात गाथाओं तक सामान्य से सर्वज्ञ की सिद्धि करेंगे । इसके पश्चात् तैतीस गाथाओं में ज्ञान का वर्णन है फिर अठारह गाया तक सुख का वर्णन है । इस तरह
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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