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________________ पवयणसारों ] [ ३ शय विवेक ज्योति जिनको (अर्थात् जिनके परम भेद-विज्ञान का प्रकाश उत्पन्न हो गया है-जो सम्यग्दृष्टि बन चुके हैं), (३) नष्ट हो गया है समस्त एकान्तवाद विद्या (ज्ञान) का अभिप्राय जिनके (जिनके एकान्त पक्ष की पकड़ रूप मिथ्याज्ञान नष्ट हो गया है), (४) परमेश्वर (जिनेन्द्रदेव) की अनेकान्तबाद विद्या (ज्ञान) को प्राप्त करके (सम्यग्ज्ञानी बनकर), (५) समस्त पक्ष का परिग्रह त्याग देने से (इष्ट यस्तु में राग और अनिष्ट वस्तुओं में द्वेष के पक्ष की पकड़ को छोड़ देने से) अत्यन्त मध्यस्थ (उदासीन-चीतरागी) होकर (सम्यक्चारित्रवान होकर), (६) जो मोक्षलक्ष्मी सब (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) पुरुषार्थों में सारभूत होने से आत्मा के लिये अत्यन्त हितरूप (उत्कृष्ट हित-स्वरूप) है, जो मोक्ष-लक्ष्मी भगवन्त परमेष्ठी के प्रसाद से उत्पन्न होने योग्य है, जो मोक्ष-लक्ष्मी परमार्थ रूप होने के कारण सत्य है और जो मोक्षलक्ष्मी अक्षय है (अविनाशी है-एक बार प्राप्त होकर सदा बनी रहती है) ऐसी उस मोक्षलक्ष्मी को उपादेयपने से निश्चित करते हुए (प्राप्त करने योग्य है, ऐसा निर्णय करते हुए), (७) प्रवर्तमान तीर्थ के नायक (श्री महावीरस्वामी) पूर्वक भगवन्त पंचपरमेष्ठी को प्रणाम और वन्दना से होने वाला (भेदाभेदात्मक नमस्कार के द्वारा सम्मान करके (काय के विशेष नमन द्वारा और वचन के द्वारा उनके प्रति मन में बहुमान लाकर) (८) सम्पूर्ण पुरुषार्थ से मोक्ष मार्ग के चारित्र को आश्रय करते हुए, (फश्चित्) कोई निकट भव्यात्मा प्रतिज्ञा करते हैं तात्पर्यवृत्ति नमः परमचंतन्यस्वात्मोत्थसुखसम्परे । परमागमसाराय सिद्धाय परमेष्ठिने ॥१॥ अर्थ-जिनकी सम्पत्ति परम अतीन्द्रिय सुख है, जो सुख परम चैतन्य-स्वरूप निजात्मा से उत्पन्न हुआ है, ऐसे परमागम के साररूप सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार हो । (अथास्यान्तराधिकारस्योपोद्घातः)-अथ प्रवचनसारव्याख्यायां मध्यमरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थायां मुख्यगौणरूपेणान्तस्तत्त्वबाहिस्तत्वप्ररूपणसमर्थायां च प्रथमत एकोत्तरशतगाथाभि - नाधिकार:, तदनन्तरं त्रयोदशाधिकमातगाथाभिर्दर्शनाधिकारः, ततश्च सप्तनवतिगाथाभिश्चारित्राधिकारश्चेति समुदायेनैकादशाधिकत्रिशतप्रमितसूभैः सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूपेण महाधिकारत्रयं भवति । अथवा टोकाभिप्रायेण तु सम्यग्ज्ञानज्ञेयचारित्राधिकारचूलिकारूपेणाधिकारत्रयम् । तत्राधिकारनये प्रथमतस्तावज्ञानाभिधानमहाधिकारमध्ये द्वासप्ततिगाथापर्यन्तं शुद्धोपयोगाधिकारः कथ्यते । तासु
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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