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[ पवयणसारो
द्रव्य- गायतशान को मारमा मसुगावरा-...
हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं जयत्ययः ।
प्रकाशयज्जगत्तत्वमनेकान्तमयं महः ॥२॥ अन्वयार्थ-(जो श्रुतज्ञान) [हेलोल्लुप्तमहामोहतमस्तोमं] क्रीडा मात्र मे महामोहरूप अन्धकारसमूह को नष्ट कर देता है और जो श्रुतज्ञान [जगत्तत्त्वं] जगत् (लोक अलोक) के स्वरूप को [प्रकाशयत् ] प्रकाशित करता है, अदः] वह (अनेकान्तमय परस्पर-विरोधी अनेक धर्मात्मक वस्तु को दिखलाने वाला) [महः ] तेज (श्रुतज्ञान) [जयति] जयवन्त है, अर्थात् उस श्रुतज्ञान के लिये नमस्कार है।
विशेष-अनेकान्तात्मक द्रव्य और भाव रूप श्रलज्ञान से मोह सहज में नष्ट हो जाता है, और छः द्रव्यों का यथार्थ स्वरूप प्रतिभासित हो जाता है। इसलिए वह नमस्कार करने योग्य है। टीका करने की प्रतिज्ञा तथा प्रयोजन
परमानन्दसुधारसपिपासितानां हिताय भज्यानाम् ।
नियते प्रकटिततत्वा प्रवचनसारस्य वृत्तिरियम् ॥३॥ अन्वयार्थ---[परमानन्द-सुधारसपिपासितानां ] परमानन्दरूप सुधा रस के पिपासु (अतीन्द्रियसुखरूप अमृत के प्यासे) [भच्यानां] भव्यों के [हिताय] हित के लिये [प्रकटिततत्त्वा] श्री प्रवचनसार जी की गाथाओं के तत्व को अथवा वस्तु-तत्व को (स्वरूप को) प्रगट करने वाली [इयं] यह [प्रवचनसारस्य] श्री प्रवचनसार की [वृत्तिः] टीका [क्रियते] [मुझ अमृतचन्द्राचार्य द्वारा] की जाती है।
विशेष-अध्यात्म रस के पिपासुओं को पिपासा शान्ति हेतु सरल शब्दों में अध्यात्म पदावली के रहस्य को स्फुटित करने के लिए दीका रची गयी है।
अथ खलु कश्चिदासनसंसारपारावारपारः समुन्मीलितसातिशयविवेकयोतिरस्तमितसमस्तकान्तबादाविद्याभिनिवेशः पारमेश्वरीमनेकान्तवादविद्यामुपगम्य मुक्तसमस्तपक्षपरिग्रहतयात्यन्तमध्यस्थो भूत्वा सकलपुरुषार्थसारतया नितान्तमात्मनो हिततमां भगवत्पंचपरमेठिप्रसादोपजन्यां परमार्थसत्यां मोक्षलक्ष्मीमक्षयामुपादेयत्वेन निश्चिन्वन् प्रवर्तमानतीर्थनायकपुरः सरान् भगवतः पंचपरमेष्ठिनः प्रणमनवन्दनोपजनितनमस्करणेन संभाव्य सर्वारम्भेण मोक्षमार्ग संप्रतिपद्यमानः प्रतिजानीते--
भूमिका- अब (टोकाकार श्री अमृतचन्द्र सूरि प्रथम पांच गाथाओं की भूमिका लिखते हैं।) (१) निकट है संसार समुद्र का किनारा जिनके (जो निकट-भव्य हैं), (२) प्रकट हो गई है साति