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सिरि- कोंडकुड - आइरिय-पणोदो पवयण सारो
( प्रवचनसार: )
( टीकाद्वयोपेतः )
श्री अमृतचन्द्रसूरिकृत - तत्त्वप्रदीपिका टोका श्रीजय सेनाचार्यकृत- तात्पर्यवृत्ति टीका
ज्ञानतत्त्व-प्रज्ञापन
१
॥ मंगलाचरणम् ॥
सर्वव्याप्येकचिद्रूपस्वरूपाय परात्मने । स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ज्ञानानन्दात्मने नमः ॥ १॥
अन्वयार्थं – [सर्वव्याप्येकचिदुरूप स्वरूपाय ] सर्वव्यापी ( सबका ज्ञाता ) होने पर भी एक चैतन्यरूप ( भाव चैतन्य हो ) जिसका स्वरूप है - ( जो ज्ञेयाकार होने पर भी ज्ञानाकार है अर्थात् सर्वज्ञता को लिये हुए आत्मज्ञ है ) जो [ स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय ] स्वानुभव प्रसिद्ध है ( शुद्ध आत्मोपलब्धि से प्रसिद्ध है), और जो [ज्ञानानन्दात्मने] ज्ञानानन्दात्मक है ( अतीन्द्रिय पूर्ण- ज्ञान तथा अतीन्द्रिय पूर्ण सुख-स्वरूप है ) ऐसे उस [परमात्मने । परमात्मा ( उत्कृष्ट आत्मा) के लिये [ नमः | नमस्कार हो ।
विशेष – 'परमात्मा' का अर्थ 'दूसरे का आत्मा' भी होता है और 'परात्मा' का अर्थं 'परमात्मा' अर्थात् उत्कृष्ट आत्मा भी होता है । यहाँ 'उत्कृष्ट आत्मा' अर्थ है । परमात्मा विशेष्य है और तीन उसके विशेषण हैं । सर्वज्ञता सहित आत्मज्ञता, शुद्ध आत्मोपलब्धि लक्षणता और अतीन्द्रिय ज्ञान-सुख-मयता 'नमः' अव्यय है। उससे यहाँ क्रियापद का काम लिया गया है ।