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में ही की है, इनकी भाषा में मागधी और महाराष्ट्री प्राकृत के शब्दों का भी प्रयोग प्राप्त होता है, जिससे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द भाषा की संकीर्णता से दूर थे।
आचार्य कुन्दकुन्द रचित सभी. रचनाएँ श्रेष्ठ हैं किन्तु उनमें प्रवचनसार (पबयणसार) श्रेष्ठतम है क्योंकि इसमें निष्क्रियवृत्ति से छुड़ाकर कल्याणपथ पर बढ़ने के लिए प्रेरित किया है। बार. बार चारित्र को अंगीकार करने की प्रेरणा दी है ! दीक्षार्थी और दीक्षा देने वाले को महनीयता का दर्शाया है।
दुःखों से विमुक्ति के लिए मोहरागद्वेष से दूर रहने के लिए अनेकों बार सम्बोधित किया है। धमणों को श्रमणधर्म के पूर्ण नियमों की परिपालना करने के लिए प्रेरणा देते हुए सांसारिक कार्यों में प्रवृत्ति करने से रोका है। जिन कार्यों से रागद्वेष बढ़ता है ऐसे कार्यों से सतत् सावधान रहने का आदेश दिया है । आत्मकल्याण का परमसाधक होने से यह मन्थराज उपादेय है। कल्याणकारी है। इसीलिए अनेकों संस्थाओं के माध्यम से इसके अनेकों संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इसी शृंखला में आचार्य श्री अमृतचन्द्र कृत तत्त्वदीपिका और आचार्य जयसेन कृत तात्पर्यवृत्ति उभय संस्क्रत टीकाओं का भाषानवाद स्व. पं. अजितकमार शास्त्री तथा स्व. पं. रतनचन्द मस्तार द्वारा अमदित प्रवचनसार के दो संस्करण श्री शान्तिवीर दि. जैन ग्रन्थमाला श्री महावीर जी ने प्रकाशित किये हैं।
उभय टीकाओं के भाषानुवाद से समलंकृत ग्रन्थ से स्वाध्यायियों को अधिक लाभ मिला, जिससे ग्रन्थ की मांग बढ़ी। स्वाध्यायशील महानुभावों को अभिरुचि और मांग को देखते हुए उपाध्यायरल १०८ श्री भरतसागर महाराज और आर्यिका १०५ श्री स्याद्वादमती माता जी ने परमपूज्य वात्सल्यमूर्ति आचार्य १०८ श्री विमलसागर महाराज की हीरकजयन्ती के शुभावसर पर प्रकाशित होने वाले ७५ ग्रन्थों के अन्तर्गत उभय टीका भाषानुवाद समलंकृत प्रवचनसार को प्रकाषित करने का निर्णय लिया। इसके संशोधन/सम्पादन का उत्तरदायित्व मुझे सौंपा। मैंने आत्मकल्याण के साधक ग्रन्थराज के स्वाध्याय मनन चिन्तन को उपादेय मानते हुए उपाध्याय श्री भरतसागर महाराज और आयिका स्याद्वादमती जी के आदेश एवं प्रेरणा को सहर्ष स्वीकार किया।
इसमें आचार्य अमृतचन्द्र ने गाथाओं में जो पाठ लिये हैं, आचार्य जयसेन ने उनसे भिन्न पाठ भी ग्रहण किये हैं, मैंने पाठान्तरों को पादटिप्पण के रूप में प्रस्तुत किया है। हिन्दी टीका एवं भावार्थ में आये हुए उद्धरणों के सन्दर्भ दिए गये हैं । यथासम्भव नन्थ को परिमार्जित रूप में प्रकाशित कराया गया है । मुझे आशा एवं पूर्ण विश्वास है, यह ग्रन्ध स्वाध्यायी महानुभावों को अत्यधिक उपादेय होगा । मुनिराजों त्यांगीव्रती श्रावकजनों को पूर्ण चारित्रनिष्ठ बनाने तथा आत्मकल्याण के लिए साधक होगा।
परमपूज्य आचार्य श्री विमलसागर महाराज, उपाध्याय श्री भरतसागर महाराज के चरणों में नमोऽस्तु । आर्यिका स्याद्वादमती माता जी को वदामि । ब्र० पं० धर्मचन्द शास्त्री, ब्र० बहिन प्रभा पाटनी के प्रति आभार । प्रकाशन के निमित्त अर्थ सहयोगी दातारों के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करता हुआ पुन: कामना करता हूँ, ग्रन्धराज स्वाध्यायी जनों को आत्मसाधना का निमित्त बने ।
जिनोपासक : डा०श्रेयांसकुमार जैन व्याख्याता, दि० जैन कालेज बदौज ।