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________________ सम्पादकीय आध्यात्मिक जगत् में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी का स्थान सर्वोपरि है, जिनके आध्यात्मिक चिन्तन की अखण्ड ज्योति से भारत को ही नहीं अपितु समस्त संसार को आलोक प्राप्त हुआ है । अध्यात्म के प्रतिष्ठापक आचार्य कुन्दकुन्द महान् पक्तित्व हैं इन्होंने अध्यात्म के क्षेत्र में एक सुनिश्चित वैज्ञानिक प्रक्रिया प्रदान की है, जिससे जीवन की जटिल समस्याओं को सुलझाने, आत्मशक्तिओं को विकसित करने, सांसारिक संतापों से मुक्त ह.ने, यथार्थ आत्मिक सुख पाने में पूर्ण सहायता प्राप्त ह तो है। इसीलिए भगवान महावीर, गौतमगणधर के साथ-साथ आचार्य कुन्दकुन्द को भी मंगल स्वरूप माना गया है। ___ आचार्य कुन्दकुन्द की परम्परा ही प्रामाणिक मानी गयी है जितने भी बिम्ब प्रतिष्ठित होते हैं उन पर “कुन्दकुन्दान्वये" लिखा जाता है। निग्रन्थ दिगम्बर मुनि परम्परा कुन्दकुन्दान्वयी होने से गौरवास्पद है । महनीय व्यक्तित्व और कृतित्व काले कुन्दकुन्द के विषय में जितना भी जाना जा सफे, आत्मतोष के लिए अत्यल्प हो है। दिव्यजान प्राप्त श्री कुन्दकुन्ददेव ने अपना परिचय देश, काल, कुल आदि की दृष्टि से अनावश्यक ममझकर नहीं दिया है मात्र गुरुभक्ति वश बोधपाहुह के अन्त में अपने गुरु के रूप में मद्रवाहु का स्मरण किया है। श्री जयसेनाचार्य ने पञ्चास्तिकाय को तात्पर्यवृत्ति में श्री कुन्दकुन्द स्वामी के गुरु का नाम कुम रनन्दि मिद्धान्तिदेव उल्लिखित किया है तथा नन्दिसंघ की पट्टावली में उन्हें जिनचन्द्र का शिष्य कहा गया है। संभवतः दोनों ही गुरु रहे हैं इनमें एक शिक्षागुरु और दूसरे दीक्षा गुरु भी हो सकते हैं, कौन शिक्षा गुरु थे तथा कौन दीक्षा गुरु थे इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होता । गम नामों के अतिरिक्त कुन्दकुन्द स्वामी के विदेहक्षेत्र में सीमंधरस्वामी के समवशरण में पहुंचने का उल्लेख मिलता है। इसके अतिरिक्त जीवन-परिचय के विषय में विशेष विवरण विविध पट्टावलियों, शिलालेखों आदि से प्राप्त होता है, किन्तु कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा लिखित परिचयात्मक विवरण सर्वथा अनुपलब्ध है । इनका कृतित्व हो सार्वभौम परिचय है 1 इन्होंने ८४ पाहड़ों की रचना की थी किन्तु सभी उपलब्ध नहीं हैं सम्प्रति समुपलब्ध कृतियाँ--समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, वारस अणुवेक्खा दसणपाहुष्ट लिंगपाहुड, कीलपाहुड, सिद्धभक्ति श्रुतभक्ति, चारित्रभक्ति, योगिक्ति, आचार्यभक्ति, निर्वाणभक्ति, पञ्चगुरुभक्ति, थोस्मामि थुदि है । इन रचनाओं को सभी मनीषी श्री कुन्दकुन्द स्वामी की स्वीकार करते हैं। इनके अतिरिक्त मूलाचार और तिरुक्कुरल काव्य ग्रन्थ भी कुन्दकुन्द द्वारा लिखित बहे जाते हैं, जिनके विषय में विद्वान् एकमत नहीं है। यह भी बहुप्रचलित है कि पटखण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर परिकर्म नामक टीका इन्हीं ने लिखी थी, जो उपलब्ध नहीं है। सभी कृतियां वस्तुतत्व का निरूपण कराने वालो हैं, भाषा, भाव और वयं विषय की गम्भीरता लिये हुए हैं। सभी ग्रन्थों की रचना कुन्दकुदाचार्य ने जनशौरसेनी में १. मगल भगवदो वीरोमगल गादमा गगी । मगस कारदार जेण्ह धम्मोत्यु मंगलं ।। २. बोधपाहुइ ६१-६२ । ३. दांनसार ४३ 1 ४. असामान्य प्रतिभा के धनी कुन्दकुन्द का जन्म आन्ध्र प्रान्तान्तगत कुन्दकुन्दपुग्म में सा पूर्व १०८ में में हुआ था, उन्होनं ११ वर्ष की अल्प आयु में ही श्रमण मुनिदीक्षा ली थी तया ३३ वर्ष तक मुनिपद पर प्रतिष्ठिता रखकर ज्ञात और चारित्र की सतत माधना की। १ वर्ष की आयु में (ई.पु. ६४) चतुर्विध मंघ ने उन्हें आचार्य पद पर निष्ठित किया। वे ५१ वर्ष १० मास १५ दिन इस पद पर विराजमान रहे उन्होंने ६५ वर्ष १० माह १५ दिन की नाय प्राप्त फर ई०पू० १२ में समाधिमरण धारण कर स्वर्गप्राप्ति की।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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