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________________ १३० 1 [ पवयणसारो ठगाई को प्राप्त होता हुआ — वह परोक्षज्ञान वास्तव में न जानने की सम्भावना को प्राप्त हैं। इसलिये यह इन्द्रियज्ञान हेय है ।। ५५ ।। तात्पर्य वृत्ति अथ हेयभूतस्येन्द्रिय सुखस्य कारणत्वादल्पविषयत्वाच्चेन्द्रियज्ञानं हेयमित्युपदिशति - जीवो सयं अमुक्तो जोवस्तावच्छवितरूपेण शुद्धयार्थिकनयेनामूर्खातीन्द्रियज्ञान सुखस्वभावः, पश्चादनादिबन्धवशाद् व्यवहानयेन मुत्तिगदी मूर्तशरीरगतो मूर्तशरीरखरिणतो भवति । तेण मुत्तिणा तेन मूर्तशरीरेण मूर्तशरीराधारोत्पन्नमूर्तद्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियाधारेण मुखं मूर्त वस्तु ओगेव्हित्ता अवग्रहादिकेन क्रमकरणव्यवधानरूपं कृत्वा जोगं तत्स्पर्शादिमूर्त वस्तु । कथंभूतं ? इन्द्रियग्रहृणयोग्यं जाणवि वा तण जाणादि स्वाव रणक्षयोपशमयोग्यं किमपि स्थूलं जानाति विशेषक्षयोपशमाभावात् सूक्ष्मं न जानातीति । अयमत्र भावार्थ:- इन्द्रियज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्ष भण्यते, तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव परोक्षं तु यावतांशेन सूक्ष्मार्थं न जानाति तावतांशेन चित्तखेदकारणं भवति । वेदश्च दुःखं ततो दुःखजनकत्वादिन्द्रियज्ञानं हेयमिति ॥ ५५ ॥ उत्थानिका— आगे त्यागने योग्य इन्द्रियसुख का कारण होने से तथा अल्प विषय के जानने की शक्ति होने से इन्द्रियज्ञान त्यागने योग्य है ऐसा उपदेश करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जीवो सयं अमुत्तो ) जीव स्वयं अमूर्तिक है अर्थात् शक्ति से व शुद्धद्रव्याधिकमय से अभूतिक अतीन्द्रियज्ञान और सुखमयी स्वभाव को रखता है तथा अनादिकाल से कर्म बंध के कारण से व्यवहार में ( मुत्तिगदी ) मूर्तिक शरीर में प्राप्त है व मूर्तिमान शरीरों द्वारा मूर्ति कसा होकर परिणमन करता है ( तेण सुतिणा) उस मूर्तशरीर के द्वारा अर्थात् उस मूर्तिकशरीर के आधार में उत्पन्न जो मूर्तिक द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय, उनके आधार से (जोग्गं मुत्तं ) योग्य मूर्तिक वस्तु को अर्थात् स्पर्शादि इंद्रियों से ग्रहण योग्य मूर्तिक पदार्थ को (ओगेहिता ) अवग्रह आदि से क्रम क्रम से ग्रहण करके ( आदि ) जानता है अर्थात् अपने आवरण के क्षयोपशम के योग्य कुछ भी स्थूल पदार्थ को जानता है (वा ताण जाणावि) तथा उस मूर्तिक पदार्थ को नहीं भी जानता है, विशेष क्षयोपशम के न होने से सूक्ष्म या दूरवर्ती, व काल से मायी काल के बहुत से मूहिक पदार्थों को नहीं जानता है । यहाँ यह इन्द्रियज्ञान यद्यपि व्यवहार से प्रत्यक्ष कहा जाता है तथापि निश्चय से अपेक्षा से परोक्ष ही है । परोक्ष होने से जितने अंश में वह सूक्ष्म पदार्थ को नहीं जानता है उतने अंश में जानने की इच्छा होते हुए न जान सकने से चित्त को खेद का कारण होता हैं, खेद ही दुख है इसलिये दुःखों को पैदा करने से इन्द्रियज्ञान त्यागने योग्य है ।। ५५॥ प्रच्छन्न व भूत भावार्थ है कि केवलज्ञान को
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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