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________________ पवयणसारो ] [ १३१ अथेन्द्रियाणां स्वविषयमात्रेऽपि युगपत्प्रवृत्त्यसंभवाद्धेय मेवे न्द्रियज्ञान मित्यवधारयति - फासो रसोय गंधो वण्णो सद्दो य पुग्गला' होंति । अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गण्हंति ॥ ५६ ॥ स्पर्शी रतश्च गन्धो वर्ण: शब्दश्च पुद्गला भवन्ति । अक्षाणां तान्यक्षाणि युगपत्तान्तंव गृह्णन्ति । ५६ ॥ इन्द्रियाणां हि स्परसगन्धवर्णप्रधानाः शब्दश्व ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः । अथेन्द्रिययुगपत्तेऽपि न गृह्यन्ते तथाविधक्षयोपशमनशक्तेरसंभवात् । इन्द्रियाणां हि क्षयोपशमसंज्ञिकायाः परिच्छेत्र्याः शक्तेरन्तरङ्गायाः काकाक्षितारकवत् क्रमप्रवृत्तिवशादनेकतः प्रकाशयितुमसमर्थत्वात्सत्स्वपि द्रव्येन्द्रियद्वारेषु न यौगपद्येन निखिलेन्द्रियार्थावबोधः सिद्धय ेत्, परोक्षत्वात् ॥५६॥ भूमिका – अब, इन्द्रियों के अपने विषय मात्र में भी युगपत् प्रवृत्ति को असंभवता होने से इन्द्रियज्ञान हेय है, इस प्रकार उसकी निन्दा करते हैंअन्वयार्थ – [ स्पर्शः ] स्पर्श | रसः ] रस [ गंध: ] गंध, [ वर्ण: ] वर्ण [च] और [शब्द: ] शब्दरूप [ पुद्गलाः ] पुत्रगल [ भवन्ति । हैं । वे [ अक्षाणां (त्रिषयाः) भवन्ति ] इन्द्रियों के विषय हैं । [तानि अक्षाणि ] ( परन्तु ) वे इन्द्रियाँ [तान् ] उनको [भी] [युगपत्] एक साथ [न एव गृलुम्ति ] ग्रहण नहीं करती हैं ( युगपत् नहीं जान सकती हैं) । 1 टीका स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण प्रधान ( गुणवाला) तथा शब्दरूप पुद्गल वास्तव में इन्द्रियों के ग्रहण करने योग्य | किन्तु इन्द्रियों के द्वारा एक साथ वे पुद्गल भी ग्रहण नहीं होते हैं। क्योंकि क्षयोपशम से उस प्रकार की शक्ति का होना असम्भव है । क्षयोपशम नाम की अन्तरंग ज्ञातृशक्ति के कौवे की आंख की पुतली को भांति, क्रमिक प्रवृत्ति के यश से अनेकतः प्रकाश के लिये (एक ही साथ अनेक विषयों को जानने के लिये) असमर्थता होने से ब्रध्येन्द्रिय द्वारों के विद्यमान होने पर भी, इन्द्रियों के युगपत् पने से समस्त इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों का ज्ञान नहीं होता, क्योंकि इन्द्रियज्ञान परोक्ष है ॥५६॥ तात्पर्यवति अथ चक्षुरादीन्द्रियज्ञानं रूपादिस्वविषयमपि युगपन जानाति तेन कारणेन हेयमिति निश्चिनोति - फासो रसोय गन्धो वण्णो सद्दोय पोग्गला होंति स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दा: पुद्गला मूर्ती भवन्ति । ते च विषयाः । कॆषां ? अक्खाणं स्वर्शनादीन्द्रियाणां ते अक्खा तान्यक्षाणोन्द्रियाणि कर्तृणि जुगवं ते जेब गेहंति युगपत्तान् स्वकीयविषयानपि न गृह्णन्ति न जानन्तीति । १. मोग्गला (ज० वृ० )
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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