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________________ पक्ष्यणसारो ] [ १२६ स्पर्शाविप्रधानं वस्तूपलभ्यतामुपागतं योग्यमवगृह्य पदाचित्तदुपर्युपरि शुद्धिसंभवादवगज्छति, कदाचित्तदसंभवान्नावगच्छति । परोक्षत्वात् । परोक्षं हि ज्ञानमतिदृढतराजानतमोयन्थिगुण्ठनाग्निमीलितस्यानादिसिन्दचतन्यसामान्यसंबन्धस्याप्यात्मतः स्वयं परिच्छेत्तमर्थमसमर्थस्योपात्तानुपातपरप्रत्ययसामग्रीमार्गणथ्यग्रतयात्यन्तविसंष्ठुलत्वमवलम्बमानमनन्तायाः शक्तः परिस्खलनान्नितान्तविक्लवीभूतं महामोहमल्लस्य जीवववस्थत्वात् परपरिणतिप्रवर्तिताभिप्रायमपि पदे पदे प्राप्तविप्रलम्भमनुपलम्भसंभावनामेव परमार्थतोऽहति । अतस्तडेयम् ॥५५॥ भूमिका—अब, इन्द्रियसुख का साधनभूत इन्द्रियज्ञान हेय है, इस प्रकार उसकी निन्दा करते हैं ___अन्वयार्थ-[स्वयं अमुर्तः] स्वयं अमूर्त [जीवः ] जीव [मूर्तिगतः] मूर्त शरीर को प्राप्त होता हुआ [तेन मूर्तेन] उस मूर्त शरीर के द्वारा [योग्यं मूर्त] (इन्द्रिय से ग्रहण) योग्य मूर्त पदार्थ को [अवग्रह्य ] अवग्रह करके [जानाति] जानता है [वा तत् न जानाति] अथवा उसको नहीं जानता है (कभी जानता है और कभी नहीं जानता है)। __टीका-इन्द्रियज्ञान वास्तव में मूर्त-उपलम्भक है और मूर्त-उपलभ्य है। अर्थात् इन्द्रियज्ञान जिस चीज के द्वारा जानता है वह भी मूर्त है और जिस चीज को जानता है यह भी मूर्त है। उस इन्द्रियज्ञान बाला जीव स्वयं अमूर्त होने पर भी मूर्त पंचेन्द्रियात्मक शरीर को प्राप्त होता हुआ, ज्ञप्ति उत्पन्न करने में बलधारण (बल देने रूप) निमित्त होने से जो उपलम्भक है, ऐसे उस मूर्त (शरीर) के द्वारा ज्ञेयता तथा योग्यता को प्राप्त मूर्त स्पर्श आदि प्रधान वस्तु को अवग्रह करके, कदाचित् उससे ऊपर ऊपर को शुद्धि के सद्भाव के कारण जानता है और कदाचित् अवग्रह के ऊपर ऊपर की शुद्धि के असद्भाव के कारण नहीं जानता है, क्योंकि वह (इन्द्रियज्ञान) परोक्ष है। अब इसको न्याय से सिद्ध करते हैं। चतन्य-सामान्य के साथ जिसका अनादि-सिद्ध सम्बन्ध होने पर भी जो अति दृढतर अज्ञानरूप तमोग्नन्थि (अन्धकारसमूह) द्वारा आवृत्त होने से संकुचित हो गया है (और इसलिये) स्वन्य पदार्थों को जानने के लिये असमर्थ हो गया है, ऐसे आत्मा के, (१) उपात्त और अनुपात्त पर-पदार्थ रूप कारण-सामग्री को ढूंढने को व्यग्रता से अत्यन्त चंचल-तरल अस्थिरता को अवलम्बन करता हुआ, (२) अनन्तशक्ति से च्युत होने से अत्यन्त विक्लव (खिन्न) वर्तता हुआ, (३) महामोह मल्ल के जीवित अवस्था में रहने से पर-परिणति का (पर को परिणमित करने का) अभिप्राय करने पर भी पद पद पर
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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