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________________ १२८ ] [ पश्यणसारो उत्थानिका-आगे उसी पूर्व में कहे हुए अतीन्द्रियज्ञान का विशेष वर्णन करते हैं--- अन्वय सहित विशेषार्थ-(पेच्छदो) अच्छी तरह देखने वाले केवलज्ञानी पुरुष का (ज) जो अतीन्द्रिय केवलज्ञान है सो (अमुत्तं) अमूर्तिक को अर्थात् अतीन्द्रिय तथा राग रहित सदा आनन्दमयी सुखस्वभाव के धारी परमात्मध्य को आदि लेकर सब अमतिकद्रव्य समूह को, (मुत्तेसु) मूर्तिक पुद्गल द्रव्यों में (अदिवियं) अतीन्द्रिय-इन्द्रियों के अगोचर परमाणु आदिकों को (च पच्छण्णं) तथा गुप्त को अर्थात् द्रव्यापेक्षा कालाणु आदि अप्रगट तथा दूरवर्ती द्रव्यों को, क्षेत्र अपेक्षा गुप्त अलोकाफाश के प्रदेशादिकों को, काल की अपेक्षा प्रच्छन्न-विकाररहित परमानन्दमयी एक सुख के आस्वादन की परिणति रूप परमात्मा के वर्तमान समय सम्बन्धी परिणामों को आदि लेकर सब द्रव्यों की वर्तमान समय की पर्यायों को तथा भाव की अपेक्षा उस ही परमात्मा की सिद्ध रूप शुद्ध व्यंजन तथा अन्य द्रव्यों की जो यथासंभव ध्यंजनपर्याय उनमें अंतर्भूत अर्थात् मग्न जो प्रति समय में वर्तन करने वाली छ: प्रकार वृद्धि हानि स्वरूप अर्थ-पर्याय इन सब प्रच्छन्न द्रव्य क्षेत्र काल भावों को; और (सगं च इवर) जो कुछ भी यथासम्भव अपना अभ्य सम्बन्धी तथा परद्रव्य सम्बन्धी या दोनों सम्बन्धी है (साल) सर्व लेटको जाता है (तं गाणं) वह जान (पच्चरखं) प्रत्यक्ष (हवदि) होता है । यहां शिष्य ने प्रश्न किया कि जान-प्रपंच का अधिकार तो पहले ही हो चुका । अब इस सुख प्रपंच के अधिकार में तो सुख का ही कथन करना योग्य है ? इसका समाधान यह है कि जो अतीन्द्रियज्ञान पहले कहा गया है वह ही अभेदनय से सुख है इसकी सूचना के लिये अथवा ज्ञान की मुख्यता से सुख है क्योंकि इस ज्ञान में हेय उपादेय की चिता नहीं है इसके बताने के लिये कहा है। इस तरह अतीन्द्रियज्ञान हो ग्रहण करने योग्य है, ऐसा कहते हुए एक गाथा द्वारा दूसरा स्थल पूर्ण हुआ ॥५४॥ अथेन्द्रियसौख्यसाधनीभूतमिन्द्रियज्ञानं हेयं प्रणिन्दति जीवो सयं अमुत्तो मुत्तिगदो तेण मुत्तिणा मुत्तं । ओगेण्हित्ता जोग्गं जाणदि वा तं ण' जाणादि ॥५॥ जीवः स्वयममूर्तो मूर्तिगतस्तेन मूर्तन मूर्तम् । अवगृह्य योग्यं जानाति वा तन्न जानाति ।।५।। इन्द्रियज्ञानं हि मूर्तोपलम्भकं मूर्तोपलभ्यं च तद्वान् जीवः स्वयममूर्तीऽपि पञ्वेन्द्रियास्मकं शरीरं मूर्तमुपागतस्तेन ज्ञप्तिनिष्पत्तौ बलाधाननिमित्ततयोपलम्भकेन मूर्तेन मूर्त १. तण्ण ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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