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________________ १२ । 1 पवयणसारो तापर्यवृत्ति अथ भिन्नज्ञानेनात्मा ज्ञानी न भवतीत्युपदिशति, जो जाणवि सो णाणं यः कर्ता जानाति स ज्ञानं भवतीति । तथाहि-यथा संज्ञालक्षणप्रयोजनादिसति पाइन्न मोगानोज परिणतोऽग्निरप्युष्णो भण्यते, तथार्थक्रिया परिच्छित्तिसमर्थन ज्ञान गणेन परिणत आत्मापि ज्ञान भण्यते । तथा चोक्तम्- 'जानातीति ज्ञान पारमा' ण हववि णाण जाणगो आवा सर्वथैव भिन्न ज्ञानेनात्मा ज्ञायको न भवतीति । अथ मतम्-यथा भिन्नदारेण लाबको भवति देवदत्तस्तथा भिन्नशानेन ज्ञायको भवतु को दोष इति । नवम् । छेदनक्रियाविषये दा बहिर लोपकरणं भिन्नं भवतु अभ्यन्त रोपकरणं तु देवदत्तस्य छेदनक्रियाविषये शक्तिविशेषस्तच्चाभिन्न मेव भवति । तथार्थपरिच्छित्तिविषयेज्ञान मेवाभ्यन्तरोपकरणं तथाभिन्नमेव भवति, उपाध्यायप्रकाशादिवहिरणोपकरणंतद्भिन्नमपि भवतु दोषो नास्ति । यदि च भिन्नज्ञानेन झानी भवति तहिं परकीयज्ञानेन सर्वेपि कुम्भस्तम्भादिजडपदार्था ज्ञानिनो भवन्तु न च तथा । गाणं परिण वि सयं यत एव भिन्नज्ञानेन ज्ञानी न भवति तत एव घटोत्पत्तो मृत पिण्ड इव स्वयमेवोपादानरूपेणात्मा शानं परिणमति । अवा णाट्ठिया सम्वे व्यवहारेण ज्ञेयपदार्था आदर्श विम्बमिव परिच्छित्याकारेण ज्ञाने तिष्ठन्तीत्यभिप्रायः ॥३५।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि आत्मा अपने से भिन्न किसी ज्ञान के द्वारा ज्ञानी नहीं होता है अर्थात् ज्ञान और आत्मा का सर्वथा भेद नहीं है, किसी अपेक्षा से भेद है । वास्तव में ज्ञान और आत्मा अभिन्न हैं। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो जाणव) जो कोई जानता है (सो णाणं) सो ज्ञान गुण अथवा ज्ञानी आत्मा है। जैसे संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन आदि के कारण मग्नि और उसके उष्ण गुण का भेव होने पर भी अभेव नय से जलाने की क्रिया करने को समर्थ उष्ण गुण के द्वारा परिणमती हुई अग्नि भी उष्ण कही जाती है तैसे संज्ञा लक्षणादि के द्वारा ज्ञान और आत्मा का भेद होने पर भी पदार्थ और क्रिया के जानने को समर्थ ज्ञान गुण के द्वारा परिणमन करता हुआ आत्मा भी ज्ञान या ज्ञानरूप कहा जाता है ऐसा ही कहा गया है। "जानातीति ज्ञानमात्मा' कि जो जानता है सो ज्ञान है और सो ही आत्मा है। (आवा) आत्मा (णाणेण) भिन्न ज्ञान के कारण से (जाणगो) जानने वाला ज्ञाता (ण हवदि) नहीं होता है । किसी का ऐसा मत है कि जैसे भिन्न वन्तीले (हसिया) से देवदत्त घास का काटने वाला होता है वैसे भिन्न ज्ञान से आत्मा ज्ञाता होवे तो कोई दोष नहीं है। उसके लिये कहते हैं कि ऐसा नहीं हो सकता है। घास छेदने की क्रिया के सम्बन्ध में बंतीला (हसिया) बाहरी उपकरण है सो भिन्न हो सकता है परन्तु भीतरी उपकरण देवदत्त की छेदन किया सम्बन्धी शक्ति विशेष है सो वेतदत्त से अभिन्न ही है, भिन्न नहीं है। तंसे ही ज्ञान की क्रिया में उपाध्याय, प्रकाश, पुस्तक आदि बाहरी उपकरण भिन्न हैं, तो हों, इसमें कोई
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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