________________
पवयणसारो ]
इह ताबद्भगवन्तः सिद्धा एवं शुद्धज्ञानमयत्वात्सर्वतश्चक्षुषः शेषाणि तु सर्वाण्यपि भूतानि मूर्तद्रव्यावसक्तदृष्टित्वारिन्द्रियचक्षूषि, देवास्तु सूक्ष्मत्वविशिष्टमूर्तद्रव्यग्राहित्वादवधिचक्षुषः । अथ च तेऽपि रूपिद्रव्यमात्रष्टत्वेनेन्द्रियचक्षुभ्योऽविशिष्यमाणा इन्द्रियचक्षुष एव । एवममीषु समस्तेष्वपि संसारिषु मोहोपहत्ततया ज्ञेयनिष्ठेषु सत्सु ज्ञाननिष्ठत्वमूलशुखात्मतत्त्वसंसायं समस्या न समेत् । अथ तत्सिद्धये भगवन्तः श्रमणा आगमचक्षुषो भवन्ति । तेन ज्ञेयज्ञानयोरन्योन्यसंबलनेनाशक्यविवेचनत्वे सत्यपि स्वपरविभागमारचय्य निभिन्नमहामोहाः सन्तः परमात्मानमवाप्य सततं ज्ञाननिष्ठा एवावतिष्ठन्ते । अतः सर्वमप्यागमचक्षुषैव मुमुक्षूणां द्रष्टव्यम् ॥२३४॥ .
___ भूमिका-अब, मोक्षमार्ग पर चलने वालों को आगम ही एक चक्षु है, ऐसा उपदेश करते हैं :--
___अन्वयार्थ-[साध:] साधु [आगमचक्षुः] आगमचक्षु (आगम रूप चक्षु वाले) हैं, [सर्वभूतानि] सर्व प्राणी [इन्द्रियचशूषि] इन्द्रिय चक्षु वाले हैं, [देवाः च] देव [अवधिचक्षुषः] अवधिचक्षु वाले हैं [पुनः] और [सिद्धाः] सिद्ध [सर्वतः चक्षुषः] सर्वतः चक्षु (सर्व ओर से चक्षु वाले अर्थात् सर्वात्म प्रदेशों से चक्षुवान् ) हैं।
टीका :-प्रथम तो, इस लोक में भगवन्त सिद्ध ही शुद्ध ज्ञानमय होने से सर्वतः चक्षु हैं, और शेष 'सभी जीव इन्द्रिय चक्षु हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि मूर्त-द्रव्यों में लगी होती है। देव सूक्ष्मतत्वविशिष्ट मृतं द्रव्यों को ग्रहण करते हैं इसलिये वे अवधिचक्षु हैं, अथवा वे भी, मात्र रूपी द्रव्यों को देखते हैं इसलिये उन्हें इन्द्रिय चक्षु वालों से अलग न किया जाये तो, इन्द्रियचक्षु ही हैं । इस प्रकार इन सभी संसारी जीवों के मोह से मलिन होने के कारण ज्ञेयनिष्ठ होने से ज्ञाननिष्ठता का मूल जो शुद्धात्मतत्व का संवेदन उससे साध्य ऐसा सर्वतः चक्षुत्व सिद्ध नहीं होता।
__ अब, उस (सर्वतःचक्षुत्व) की सिद्धि के लिये भगवंत श्रमण आगमचा होते हैं । यद्यपि ज्ञेय और ज्ञान का पारस्परिक मिलन हो जाने से उन्हें भिन्न करना अशक्य है अर्थात् ज्ञेय ज्ञान में ज्ञात न हो ऐसा करना अशक्य है) तथापि के उस आगम घा से स्व-पर का विभाग करके, महामोह का भेद करने वाले वे परमात्मा को पाकर, सतत ज्ञाननिष्ठ ही रहते हैं । इससे (यह कहा है कि) मुमुक्षुओं को सब कुछ आगम रूप चक्षु द्वारा ही देखना चाहिये ॥२३४॥