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________________ ५८० ] [ पवयणसारो संयमपना इन तीनों को एक साथ रखता हुआ निर्विकल्प आत्मज्ञान में परिणमन कर रहा है ऐसा जानना चाहिये। भावार्थ-वास्तव में सुख दुःख मानने, अच्छा बुरा समझने, मान अपमान गिनने के जितने भाव हैं वे सब रागद्वेष की पर्याय हैं--कषाय के हो विकार हैं। परम तत्वज्ञानी साधु ने कषायों को त्याग करके वीतरागभाव पर चलना शुरु किया है इसलिये उनके कषायभाव नहीं होते। वे बाहरी अच्छी बुरी दशा में समताभाव रखते हुए उसे पुण्य पाप का नाटक जानते हुए अपने निष्कषाय भाव से हटते नहीं। ऐसे साधु आत्मानुभवरूपी समताभाव में लवलीन पाप का नाटक जानते रहते हैं इसी से बाहरी चेष्टाओं से अपने परिणामों में कोई असर नहीं पैदा करते । साधुओं को मुक्ति द्वीप में जन्मना ही सच्चा जन्म भासता है । शरीरों का बदलना वस्त्रों के बदलने के समान दिखता है, जो भावलिंगी साधु हैं, उनके ये ही लक्षण हैं। सो हो मोक्षपाहुड में कहा हैजो देहे हिरवेक्खो णिइंदो णिमम्मो णिरारंभो । आवसहावे सुरओ जोई सो सहइ णिव्याणं ॥१२॥ जो शरीर की ममता रहित है, रागद्वेष से शून्य है, यह मेरा है इस बुद्धि को जिसने त्याग दिया है व जो लौकिक व्यापार से रहित है तथा आत्मा के स्वभाव में रत है वही योगी निर्वाण को पाता है। अथेदमेध सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतत्वमकाग्रवलक्षणश्रामण्यापरनाम मोक्षमार्गत्वेन समर्थयति दसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्टिदो जो दु। एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुष्णं ॥२४२॥ दर्शनज्ञानत्ररित्रेषु त्रिषु युगपत्समुत्थितो यस्तु । ऐकाग्रगत इति मत: श्रामण्यं तस्य परिपूर्णम् ॥२४२।। ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण शेयज्ञातृतत्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण ज्ञेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिसूत्र्यमाणद्रष्टुज्ञाततत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण, च त्रिभिरपि पौगपद्येन भाज्यभायकभावविम्भितातिनिर्भरेतरेतरसंवलनवलादङ्गाङ्गिभावेन परिणतस्थात्मनो यदात्मनिष्ठत्वे सति संयतत्वं तत्पानकवदनेकात्मकस्यैकस्यानुभयमानतायामपि समस्तपरद्रव्यपरावर्तत्वादभिव्यक्तकानयलक्षणश्रामण्यापरनामा मोक्षमार्ग एवावगन्तव्यः। तस्य तु सम्यादर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारन येनकाग्रघ' मोक्षमार्ग इत्यभेवात्मकत्याद्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन विश्वस्यापि भेदाभेदात्मकत्वात्तदुभ मिति प्रमाणेन प्रज्ञप्तिः ।।२४२३
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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