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________________ पत्रयणसारो ] [ ५८१ इत्येवं प्रतिपत्तुराशयवशादेकोऽप्यनेकोभवं स्त्रलक्षण्यमर्थकतामुपगतो मार्गोऽपवर्गस्य यः ।। द्रष्टुज्ञातृनिबद्धवृत्तिमचलं लोकस्तमास्कन्दता-मास्कन्दयचिराद्विकाशमतुलं येनोल्लसत्याश्चितेः ।। भूमिका—अब, यह समर्थन करते हैं कि आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान की युगपत्ता के साथ आत्मज्ञान की युगपत्ता की सिद्धिरूप जो यह संयतता है वही मोक्षमार्ग है, जिसका अपर नाम एकाग्रतालक्षणवाला श्रामण्य है ___ अन्वयार्थ- [यः तु] जो [दर्शनज्ञानचरित्रेषु] दर्शन, ज्ञान और चारित्र [त्रिपु] इन तीनों में [युगपत् ] एक ही साथ [समुत्थितः] ठहरा हुआ है, वह [एकाग्रगतः] एकाग्रता को प्राप्त है [इति] इस प्रकार [मतः] (शास्त्र में) कहा गया है। [तस्य] उसके [श्रामण्यं] श्रामण्य [परिपूर्णम् ] परिपूर्ण है। __टीका-ज्ञेयतत्त्व और ज्ञातृतत्त्व की (ज्ञान को) यथार्थ प्रतीति जिसका लक्षण है यह सम्यग्दर्शन पर्याय है, ज्ञेयतत्व और ज्ञातृतत्व को तया प्रकार अनुभूति जिसका लक्षण है वह ज्ञानपर्याय है, ज्ञेय और ज्ञाता की अन्य क्रिया से निवृत्ति के द्वारा रचित दृष्टि ज्ञातृतत्व में परिणति जिसका लक्षण है वह चारित्र पर्याय है। इन पर्यायों के और आत्मा के माध्य-भावकी के द्वारा उत्पन्न अति माह इतरंतर मिलन के बल के कारण इन तीनों पर्यायरूप युगपत् अंग अंगी भाव से परिणत आत्मा के, आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतत्व होता है वह संयतता, एकाग्रतालक्षणवाला श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ऐसा मोक्षमागं ही है-ऐसा समझना चाहिये, क्योंकि वहां संयतत्व में, पेय से समान अनेकात्मक एक का अनुभव होने पर भी, समस्त परदथ्य से निवृत्ति होने से एकाग्रता प्रगट है । वह (संयतत्वरूप अथवा श्रामण्यरूप मोक्षमार्ग) मेवात्मक है, इसलिये 'सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है, इस प्रकार पर्यायप्रधान व्यवहारनय से उसका प्रज्ञापन है, वह इन तीनों को एकता मोक्षमार्ग है, यह अभेदात्मक होने के कारण द्रव्यप्रधान निश्चयनय से प्रज्ञापन है, समस्त ही पदार्थ भेदाभेदात्मक है, इसलिये वे दोनों (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र तथा तीनों की एकता) मोक्षमार्ग है इस प्रकार प्रमाण से उसका प्रज्ञापन है ।।२४२॥ [अब काव्य द्वारा मोक्षप्राप्ति के लिये द्रष्टा-शाता में लीनता करने को कहा जाता है।] अर्थ--इस प्रकार, प्रतिपादक के आशय के यश, एक होने पर भी अनेक होता हुआ तथा त्रिलक्षणता को प्राप्त जो अपवर्ग (मोक्ष) का मार्ग है उसको, लोक द्रष्टा ज्ञाता में परिणति बांधकर, अचलरूप से अवलम्बन करे जिससे वह लोक उल्लसित चेतना के अतुल विकास को अल्पकाल में प्राप्त करता है।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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