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________________ ५८२ ) [ पवयणसारी तात्पर्यवृत्ति अथ यदेव संयलतपोधनस्य साम्यलक्षणं भणितं तदेव श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गो भण्यत इति प्ररूपयति; दसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुछिदो जो दु दर्शनशानचारित्रेषु त्रिषु युगपत्सम्यगुपस्थित उद्यतो यस्तु कर्ता एयगागवोति मदो स ऐकाग्रयगत इति मतः सम्मतः सामण्णं तस्स पडिपुण्णं श्रामण्यं चारित्रं यतित्वं तस्य परिपूर्णमिति । तथाहि-भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मभ्यः शेषपुद्गलादिपंचद्रव्येभ्योपि भिन्न सहजशुद्धनित्यानन्दकस्वभावं ममसम्बन्ध्रि यदात्मद्रव्यं तदेव ममोपादेयमितिरुचिरूपं 'सम्यग्दर्शनम्' तय परिच्छित्तिरूपं सम्यग्ज्ञानं तस्मिन्नेव स्वरूपे निमचलानुभूतिलक्षणं चारित्रं चेत्युक्तस्वरूप सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रत्रयं पानकवदने कमप्यभेदनयेनैक यत् तत्सविकल्पाबस्थायां व्यवहारेणकायं भण्यते । निर्विकल्पसमाधिकाले तु निश्चयेनेति तदेव च नामान्तरेण परमसाम्यमिति तदेव परमसाम्यं पर्यायनामान्तरेण शुद्धोपयोगलक्षणः श्रामण्यापरनामा मोक्षमार्गो झातव्य इति । तस्य तु मोक्षमार्गस्य सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेन निर्णयो भवति । ऐकायं मोक्षमार्ग इत्यभेदात्मकत्वात् द्रव्यप्रधानेन निश्चयनयेन निर्णयो भवति । समस्तवस्तुसमुहम्यापि भेदाभेदात्मकत्वान्निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गद्वयस्यापि प्रमाणेन निश्चयो भवतीत्यर्थः ।।२४२।। एवं गिना या महामायमतिपादनमुख्यत्वेन तृतीयस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् । उत्थानिका-आगे कहते हैं जो यहां संयमी तपस्वी का साम्यभाव लक्षण बताया हैं वही साधुपना है तथा वही मोक्षमार्ग कहा जाता है। अन्वय सहित विशेषार्थ- (जो दु) जो कोई (दसणणाणचरित्तेसु तोसु) इन सम्परदर्शन ज्ञान और चारिन तीनों में (जुगवं समुट्ठियो) एक साथ भले प्रकार तिष्ठता है (एयग्गागदोत्ति मदो) यही एकाग्रता को प्राप्त है अर्थात् ध्यान-मग्न है, ऐसा माना गया है (तस्स परिपुण्णं सामण्णं) उसी के यतिपना अथवा चारित्र परिपूर्ण है। जो भाव-कर्म रागादि, द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादि, नोकर्म शरीरादि इनसे मिन्न है तथा अपने सिवाय शेष जीव तथा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन सब द्रव्यों से भी भिन्न है, और जो स्वभाव ही से शुद्ध, नित्य, आनन्दमयी एक स्वभाव रूप है, 'वही मेरा आत्म द्रव्य है, वही मुझे ग्रहण करना चाहिये' ऐसी रुचि होना सो सम्यग्दर्शन है, उसी निज स्वरूप को यथार्थ पहचान होमा सो सम्यग्ज्ञान है तथा उसी ही आत्मस्वरूप में निश्चल अनुभूति सो सम्यक्चारित्र है। जैसे शर्बत अनेक पदार्थों से बना है इसलिये अनेक रूप है, परन्तु अभेव करके एक शर्बत है। ऐसे ही विकल्प सहित अवस्था में व्यवहारनय से उक्त स्वरूप वाले सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र ये तोन हैं, परन्तु विकल्परहित समाधि के काल में निश्चयनय से इनको एकाग्र कहते हैं। यह जो स्वरूप में एकाग्रता है या तन्मयता है इसी को दूसरे नाम से परमसाम्य कहते हैं। इसी साम्य का अन्य पर्याय नाम शुद्धोपयोग
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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