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________________ ३६६ ] [ पवयणसारो तात्पर्यवृत्ति अथ कीदृशं तरिस्नग्धरूक्षत्वमिति पृष्ट प्रत्युत्तरं ददाति एगुत्तरमेगादी एकोत्तरमेकादि । कि? णित्तणं च लुक्खत्तं स्निग्धत्वं रूक्षत्वं च कर्मतापन्न भणिदं भणितं कथितम् । कि पर्यन्तम् ? जाव अणंतत्तमणुहदि अनन्तत्वमनन्तपर्यन्तं यावदनुभवति प्राप्नोति । कस्मात्सकाशात् परिणामादो परिणतिविशेषात्परिणामित्वादित्यर्थः । कस्य सम्बन्धि ? अणुस्स अणो: पुद्गलपरमाणोः । तथाहि-यथा जीवे जलाजागोमहिपोक्षीरे स्नेहद्विवत्स्नेहस्थानीय रागित्वं रूक्षस्थानीयं द्वेषत्वं बन्धकारणभूतं जघन्यविशुद्धसंक्लेशस्थानीयमादि कृत्वा परमागमकथितक्रमेणोत्कृष्टबिशुद्धसंक्लेशपर्यन्तं वर्द्धते। तथा पुद्गलपरमाणुद्रव्येऽपि स्निग्धत्वं क्षत्व च बन्धकारणभूतं पूर्वक्तिजलादितारतम्यशक्तिदष्टान्तेनैकगुणसंज्ञाजघन्यशक्तिमादि कृत्वा गुणसंज्ञेनाविभागपरिच्छेदद्वितीयनामाभिधेयेन शक्तिविशेषेण वर्द्धते । कि पर्यन्तं । यादवदनन्तसंख्यानम् । कस्मात् ? पुद्गलद्रव्यस्य परिणामित्वात् परिणामस्य वस्तुस्वभाबादेव निषेधितुमशक्यत्वादिति ।। १६४॥ उत्थानिका—आगे वे स्निग्ध रूक्ष गुण किस तरह हैं ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(अणुस्स) परमाण का (गिद्धतणं च लुक्खत्त) चिकनापना या रूखापना (गादी) एक अंश को आदि लेकर (एगुत्तरम्) एक-एक बढ़ता हुआ (परिणामादो) परिणमन शक्ति के विशेष से (जाव अणंतत्त) अनंतपने तक (अणुहवि) अनुभव करता है । ऐसा (भणिद) कहा गया है जैसे जल, बकरी का दूध, गाय का बूध, भैंस का दूध एक दूसरे से अधिक-अधिक चिकनाई को रखता है, इसी तरह यह संसारी जीव चिकनाई के स्थान में रागपने को, रूखेपने के स्थान में द्वेषपने को बन्ध के कारणभूत जघन्य विशुद्ध या संक्लेश भाव को आदि लेकर परमागम में कहे प्रमाण उकृष्ट विशुद्ध या संक्लेश भाव पर्यंत क्रम से बढ़ता हुआ रखता है। इसी तरह पुद्गल परमाणु द्रव्य भी पूर्व में कहे हुए जल दूध आदि की बढ़ती हुई शक्ति के दृष्टान्त से एक गुण नाम को जघन्य शक्ति को आदि लेकर क्रम से गुण नाम से प्रसिद्ध अविभाग परिणामों का होना वस्तु का स्वभाव है सो कोई मेटने को समर्थ नहीं है। भावार्थ-यद्यपि प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव परिणमनशील है, तयापि उस परिणमन में कालद्रव्य सहकारी कारण है ।।१६३॥ अथात्र कोशास्निग्धरूक्षत्वात्पिण्डत्वमित्यावेददिणिद्धा वा लुक्खा वा अणुपरिणामा समा वा' विसमा वा । समदो दुराधिगा जदि बज्झति हि आदिपरिहीणा ॥१६॥ १. व (ज० ब०)।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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