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________________ ६८ ] [ पत्रयणसारो तीन जगत् के तीन कालवर्ती पदार्थ ज्ञेयस्वरूप पदार्थ (चक्खूणं) आंखों के भीतर (रुवाणि थ) रूपी पदार्थों की तरह ( अण्णोष्णेषु ) परस्पर एक-दूसरे के भीतर (जेव वट्टति) नहीं रहते हैं । जैसे आंखों के साथ रूपी मूर्तिक थ्यों का परस्पर सम्बन्ध नहीं है अर्थात् आंख शरीर में अपने स्थान पर है और भी पदार्थ अपने आकार का समर्पण आंखों में कर देते हैं तथा आंखें उनके आकारों को जानने में समर्थ होती हैं तँसे ही तीन लोक के भीतर रहने वाले पदार्थ तीन काल की पर्यायों में परिणमन करते हुए ज्ञान के साथ परस्पर प्रदेशों का सम्बन्ध न रखते हुए भी ज्ञानी के ज्ञान में अपने आकार के देने में समर्थ होते हैं तथा अखंडरूप से एक स्वभाव झलकने वाला केवलज्ञान उन आकारों को ग्रहण करने में समर्थ होता है, ऐसा भाव है ॥२८॥ अयार्थेष्ववृत्तस्यापि ज्ञानिनस्तद्वृत्तिसाधकं शक्तिवैचिश्यमुद्योतयति ण पविट्ठो णाविट्ठो णाणी णेयेसु रूवमिव चक्खू । जाणदि पस्सदि णियदं अक्खातीबो जगमसेसं ||२६|| न प्रविष्टो नाविष्टो ज्ञानी ज्ञेयेषु रूपमिव चक्षुः । जानाति पश्यति नियतं अक्षातीतो जगदशेषम् | २६|| यथाहि चक्षू रुविद्रव्याणि स्वप्रदेशेरसंस्पृशदप्रविष्टं परिच्छेद्यमाकारमात्मसात्कुर्वन्न चाप्रविष्टं जानाति च एवमात्माप्यक्षातीतत्वात्प्राप्यकारिताविचारगोचरद्रतामवाप्तो ज्ञेयतामापन्नानि समस्तवस्तुनि स्वप्रदेर्शरसंस्पृशन्न प्रविष्टः, शक्तिवैचित्र्यवशतो वस्तुवर्तिनः समस्तज्ञेयाकारानुन्मूल्य इव कवलयन्त चाप्रविष्टो जानाति पश्यति च । एवमस्य विचित्रशक्तियोगितो ज्ञानिनोऽर्थेष्वप्रवेश इव प्रवेशोऽपि सिद्धिमवतरति ॥२६॥ भूमिका – अब, पदार्थों में नहीं प्रवृत्त होने वाले भी ज्ञानी के उन पदार्थों में वृत्ति को सिद्ध करने वाली शक्ति-चित्र्य को (अद्भुत शक्ति को ) प्रगट करते हैं । अन्वयार्थ --- [ चक्षुः रूपं इव | जैसे आँख रूप को ( प्रदेशों की अपेक्षा प्रविष्ट न किन्तु ज्ञेय- आकारों की अपेक्षा अप्रविष्ट न रहकर अर्थात् प्रविष्ट होकर जानती और देखती है) [ उसी प्रकार ] अक्षातीतः इन्द्रियातीत [ ज्ञानी ] केवलज्ञानी आत्मा [ अशेषं जगत् ] समस्त जगत् को (समस्त लोकालोक को ) [ ज्ञेयेषु ] ज्ञेयों में [ न प्रविष्टः ] प्रविष्ट न होकर [न अप्रविष्टः तथा अप्रविष्ट न रहकर ( अर्थात् प्रविष्ट होकर ) [ नियतं ] निश्चित रूप से [ जानाति पश्यति ] जानते और देखते हैं ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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