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________________ पक्यणसारो । । ६७ ..भूमिका अंब, ज्ञान (ज्ञानी-आत्मा) और ज्ञेय के परस्पर 'गैमने का निषेध करते हैं-(अर्थात् ज्ञानी और ज्ञेय एक-दूसरे में प्रवेश नहीं करते, यह कहते हैं): अन्वयार्थ— [ज्ञानी] आत्मा (सर्वज्ञः) | ज्ञानस्वभावः] (केवल) ज्ञानस्वभाव वाला है । (अर्थाः हि) और (जगत्त्रय कालत्रय वर्ती) पदार्थ (झानिनः) केवलज्ञानी के [ज्ञेयास्मकाः] ज्ञेयस्वरूप ही हैं । [रूपाणि इबं चक्षुषोः] जैसे कि रूपी पदार्थ आंखों के ज्ञय होते हैं । (वे ज्ञानी और ज्ञेय) [अन्योन्येषु] एक-दूसरे में [न एवं वर्तन्ते ] 'नहीं रहते, (नहीं जाते)। ..... ..... . .... . . .. .. ' टीका-ज्ञानी (आत्मा) और ज्ञेय पदार्थ स्वलक्षणभूत पृथक्त्व (अपने-अपने लक्षण को अपेक्षा मिन्नत्य) के कारण से एक-दूसरे में वृत्ति (प्रवेश) को ग्रहण नहीं करते, किन्तु उसके ज्ञान-ज्ञेय-स्वभाव-सम्बन्ध से होने वाली वृत्ति मात्र एक-दूसरे में है, "आंख और रूपी पदार्थ की तरह । जैसे आंखें और उनके विषयभूत रूपी पदार्थ परस्पर प्रवेश किये बिना भी जेयाकारों को ग्रहण करने और समर्पण करने के स्वभाव वाले हैं। (आंखें ज्ञेयाकारों को ग्रहण करने के स्वभाव वाली हैं और पदार्थ अपने ज्ञेपाकारों को समर्पण करने के स्वभाव वाले हैं)। उसी प्रकार आत्मा और पदार्थ एक दूसरे में वृत्ति बिना · (गये बिना) भी समस्त जेयाकारों के ग्रहण करने और समर्पण करने के स्वभाव वाले हैं अर्थात आत्मा समस्त तैयाँकारों के ग्रहण करने के स्वभाव वाला हैं और समस्त पदार्थ अपने ज्ञेयाकारों को समर्पण करने के स्वभाव वाले हैं ॥२८. . . . . .. तात्पयवास . . . . . . . . । ... अन ज्ञानं ज्ञेयसमीपे न गच्छतीति निश्चिनोति-प्राणो णाणसहायो शानी सर्वज्ञः केवलज्ञानस्वभाव एव । अठा णयप्पगा हि गाणिस्स जगत्त्रयकालत्रयलिपदार्था ज्ञेयात्म का एक भवन्तिः न च ज्ञानात्मकाः । कस्य,? जानिनः। रुवाणि व चक्खूणं ग्रेवण्णोणेसु बदति ज्ञानी पदार्थाश्चान्योन्यं परस्परमेकत्वे न वर्तन्ते । कानीव केषा संबन्धित्वेन ? रूपाणीव चक्षुषामिति । ताहि-यथा रुपिद्रव्याणि चक्षुषा सह परस्परं संबन्धाभावपि स्वाफारसमर्पण समर्थानि । चक्षषि च सथों कारग्रहण समर्थानि भवन्ति, तथा त्रैलोक्योदरविवरवर्तिपदार्था: कालत्रयपर्यायपरिणता ज्ञानेन सह परस्परप्रदेशसंसर्गाभावेऽपि स्वकीयाकारसमर्पणे समर्था भवन्ति । . अखण्डेकप्रतिभासमयं केवलज्ञानं तुः तदाकारग्रहणे समर्थमिति भावार्थः ॥२८॥ उत्थानिका—आगे कहते हैं कि ज्ञान ज्ञेयों के समीप नहीं जाता है ऐसा निश्चय .. sit: अन्वय सहित विशेषार्थ—(हि) निश्चय से (पाणी) केवलज्ञानी भगवान् आत्मा (णाणसहावा) केवलज्ञान स्वभावरूप है तथा (गाणिस्स) उस ज्ञानी जीव के भीतर (अस्था)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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