SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पवयणसारो ] टीका-जिस प्रकार आंख रूपी द्रव्यों को अपने प्रदेशों के द्वारा स्पर्श न करता हुआ (इस अपेक्षा से) अप्रविष्ट होकर तथा ज्ञेय के आकारों को आत्मसात् (निजरूप) करता हुआ (इस अपेक्षा से) न अप्रविष्ट रहकर (प्रविष्ट होकर) जानता और देखता है, उसी प्रकार आत्मा भी, इन्द्रिय-अतीत होने के कारण से प्राप्यकारिता की विचार-गोचरता से दूर होता हुआ, ज्ञेयता को प्राप्त समस्त वस्तुओं को अपने प्रदेशों से स्पर्श नहीं करता हुआ, प्रविष्ट न होकर तथा शक्ति-वैचित्र्य (अद्भुत शक्ति) के घश से वस्तु में वर्तते समस्त जयाकारों को मूल में से ही उखाड कर ग्रास फर लेने की भांति, न अप्रविष्ट रहकर (अर्थात् प्रविष्ट होकर) जानता और देखता है । इस प्रकार विचित्र शक्ति वाले इस केवलज्ञानी के पदार्थों में अप्रवेश की भांति प्रवेश भी सिद्धि को धारण करता है ॥२६॥ तात्पर्यवृत्ति अथ ज्ञानी ज्ञेयपदार्थेषु निश्चयनयेनाप्रविष्टोपि व्यवहारेण प्रविष्ट इव प्रतिभातीति शक्तिवैचित्र्यं दर्शयति म पविट्रो निश्चयनयेन न प्रविष्टः, णाविट्टो व्यवहारेण च नाप्रविष्टः, किन्तु प्रविष्ट एव । स कः कर्ता ? पाणी ज्ञानी । केषु मध्ये ? येसु ज्ञेयपदार्थेषु । किमिव ? रूपमिव चक्लू रूपविषये चक्षुरिव । एवंभूतम्सन मिकरोति । जाति पद जानाति पश्यति च णियदं निश्चित संशयरहितं । कि विशिष्ट: सन् ? भक्खातीवो अक्षातीतः। कि जानाति पश्यति ? जगमसेसं जगद. शेषमिति । तथाहि—यथा लोचनं कतृ रूपिद्रव्याणि यद्यपि निश्चयेन न स्पृशति तथापि व्यवहारेण स्पशतीति प्रतिभाति लोके । तथायमात्मा मिथ्यात्वरागाद्यास्त्रवाणामात्मनश्च संबन्धि यत्केवलज्ञानात्पर्व विशिष्टभेदज्ञानं तेनोत्पन्नं यत्केवलज्ञानदर्शनद्वयं तेन जगत्त्रयकालत्रयवर्तिपदार्थानिश्चयेनास्पृशन्नपि व्यवहारेण स्पृशति- तथा स्पृशन्निध ज्ञानेन जानाति दर्शनेन पश्यति च । कथंभूतस्सन् ? अतीन्द्रियसुखास्वादपरिणतः सन्नक्षातीत इति । ततो ज्ञायते निश्चयेनाप्रवेश इव व्यवहारेण नेघपदार्थेषु प्रवेशोऽपि घटत इति ॥२६॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ज्ञानी भात्मा ज्ञेय पदार्थों में निश्चय नय से प्रवेश नहीं करता हुआ भी व्यवहार से प्रवेश किये हुए है, ऐसा झलकता है, ऐसी आत्मा के ज्ञान की विचित्र शक्ति है। अन्वय सहित विशेषार्थ-(अक्खातीदो) इन्द्रियों से रहित अतीन्द्रिय (गाणी) ज्ञानी आत्मा (चवल) आंख (रुवम् इव) जैसे रूप के भीतर वैसे (येसु) ज्ञेय पदार्थों में (ण पनिट्रो) निश्चय से प्रवेश न करता हुआ अथवा (ण अविट्टो) व्यवहार से अप्रविष्ट न होता हुआ अर्थात् प्रवेश करता हुआ (णियदं) निश्चित रूप से व संशय रहितपने से (असेस) सम्पूर्ण (जगम्) जगत् को (पस्सदि) देखता है (जाणदि) जानता है। जैसे नेत्र रूपी द्रव्यों को यद्यपि निश्चय से स्पर्शन नहीं करता है तथापि व्यवहार से
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy