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________________ ४४४ ] [ पवयणसारो उत्तर प्रकृतियों से रहित निज परमानन्दमयी एक स्वभावरूप तथा सर्व प्रकार उपादेयभूत परमात्मा द्रव्य से मिल और त्यागने योग्य सर्व मूल और उत्तर प्रकृतियों से जघन्य मध्यम उत्कृष्ट अनुभाग को अर्थात् कर्म को शक्ति के विशेष को जानना चाहिये ॥१८७॥१॥ अर्थक एव आत्मा बन्ध इति विभावयति सपदेसो सो अप्पा कसायिदो मोहरागदोसेहि । कम्मरजेहि सिलिटठो बंधो त्ति परविदो समये ॥१८८।। सप्रदेशः स आत्मा कषायितो मोहरागद्वेषैः। कर्म रजोभिः श्लिष्टो बन्ध इति प्ररूपितः समये ॥१५८।। यथात्र सप्रदेशत्वे सति लोध्रादिभिः कषायितत्वात् मनीष्ठरङ्गादिभिरुपश्लिब्टमेक रक्तं दृष्टं वासः, तथात्मापि सप्रदेशत्वे सति काले मोहरागद्वेषैः कषायितत्वात कर्मरजोभिरुपश्लिष्ट एको बन्धो द्रष्टव्यः शुद्धतव्यविषयत्वान्निश्चयस्य ॥१८॥ भूमिका-अब, यह समझाते हैं कि अकेला आत्मा हो बन्ध है अन्वयार्थ--[सप्रदेशः] प्रदेशयुक्त [सः आत्मा] वह आत्मा] [समये] यथाकाल मोहरागद्वेषः] मोह-राग-द्वेष के द्वारा [कषायितः] कपायित होने से [कर्मरजोभिः श्लिष्टः] कर्मरज से लिप्त था बद्ध होता हुआ | बंधः इति प्ररूपितः] 'बध' कहा गया है । टीका-जैसे जगत् में सप्रवेशत्व होते हुये वस्त्र लोध-फिटकरी आदि से कषायित (कसैला) होने से मंजीठादि के रंग से संबद्ध होता हुआ अकेला ही रंगा हुआ देखा जाता है, इसी प्रकार सम्प्रदेशत्व होते हुये आत्मा भी यथाकाल मोह राग द्वेष के द्वारा कपायित (मलिन-रंगा हुआ) होने से कर्मरज के द्वारा श्लिष्ट होता हुआ अकेला ही बन्ध है, ऐसा देखना (मानना) चाहिये, क्योंकि निश्चय का विषय शुद्ध द्रव्य है ॥१८॥ तात्पर्यवृत्ति अथाभेदनयेन बन्धकारणभूतरागादिपरिणतात्मव बन्धो भण्यते इत्यावेदयति, सपदेसो लोकाकाशप्रमितासंख्येयप्रदेशत्वात्सप्रदेशस्तावद्भवति सो अप्पा स पूर्वोक्तलक्षण आत्मा । पुनरपि कि विशिष्ट: ? कसायिदो कपायित: परिणतो रजितः । कैः ? मोहरागदोसेहि निम्मोहस्वशुद्धात्मतत्त्वभावनाप्रतिबन्धिभिर्मोहरागद्वषः । पुनश्च किंरूपः? कम्मरएहि सिलिट्ठो कर्म रजोभिः श्लिष्ट: कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलरजाभिः संश्लिष्टो बद्धः । बंधोत्ति परुविदो अभेदेनात्मैव बन्ध इति प्ररूपितः । क्व ? समये परमागमे । अवेदं भणितं भवति—यथा वस्त्रं लोधादिद्रव्यः कषायित रञ्जितं सन्मजीष्ठादिरङ्गद्रव्येण रञ्जितं सदभेदेन रक्तमित्युच्यते तथा वस्त्रस्थानीय आत्मा १. कम्मरएहि (ज० वृ०)।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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