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________________ २०८ ] [ पययणसारो अन्वयार्थ-[यः] जो [निहतमोहदृष्टि:] जिसकी मोहदृष्टि नष्ट हो गई है (सम्यग्दृष्टि है) [आगम-कुशलः] आगम में कुशल है (सम्यग्ज्ञानी है) और [विरागचरिते अभ्युत्थितः] जो वीतरागचारित मारत है, निहारमा श्रमणः] (वह) महात्मा श्रमण [धर्मः इति विशेषितः] "धर्म" इस नाम से विशेषित किया गया है । अर्थात् वह धर्म ही है। टीका-जो यह आत्मा स्वयं धर्म होता है, वह वास्तव में मनोरथ ही है। उसके (आत्मा के या मनोरथ के) तो विघ्न डालने वाली एक (मात्र) बहिर्मोहदष्टि (बहिर्मुख मोहदृष्टि) ही है, और वह (मोह-दृष्टि) आगम-कौशल्य (आगम में कुशलता) से तथा आत्मज्ञान से नष्ट हो चुकी है। इसलिये अब वह मेरे पुनः उत्पन्न नहीं होगी । इसलिये वीतरागचारित्र रूप से प्रगटता को प्राप्त (वीतरागचारित्ररूप पर्याय में परिणत) मेरा यह आत्मा, स्थर्य धर्म होकर, समस्त विघ्नों का नाश हो जाने से, सदा निष्कम्प ही रहता है। अधिक विस्तार से बस हो। जयवन्त यतों स्याद्वार मुद्रित जैनेन्द्रशब्द-ब्रह्म और जयवन्त वर्तो शब्द-ब्रह्ममूलक आत्मतत्वोपलब्धि, कि जिसके प्रसाद से अनावि संसार से बंधी हुई मोहपन्थि तत्काल ही छूट गई है। और जयवन्त यतॊ परम धीतरागचारित्र स्वरूप शुद्धोपयोग, कि जिसके प्रसाद से यह आत्मा स्वयमेव धर्म हुआ है ॥६ ॥ कसश (मन्दाक्रांता छन्द) आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन प्राप्य शुद्धोपयोग, मित्यानन्दप्रसरसरसंज्ञानतत्त्वे निसीय । प्राप्स्यत्युच्चरविचलता निःप्रकम्पप्रकाश, स्फूर्जज्योतिःसहजविलदरत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ॥५॥ अन्वय-इति शुद्धोपयोगं प्राप्य आत्मा स्वयं धर्मः भवन नित्यानन्दप्रसरसनसंज्ञानतत्त्वे उच्चैः अविचलतया स्फूर्जज्ज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य निःप्रकम्पप्रकाशां लक्ष्मी प्राप्स्यति । भन्धयार्घ-[इति] इस प्रकार [शुद्धोपयोगं] शुद्धोपयोग को [प्राप्य] प्राप्त करके [आत्मा] आत्मा [स्वयं] स्वयं [धर्मः भवन] धर्म होता हुआ [अर्थात् स्वयं धर्मरूप परिणत होता हुआ] [नित्यानन्दप्रसरसरसं ज्ञानतत्त्वे ] नित्य आनन्द के प्रसार से सरस (शाश्वत आनन्द के प्रसार से रस-युक्त) ज्ञान तत्त्व में (लोन होकर) [उच्चः अविचलतया | अत्यन्त अविचलता के कारण [स्फूर्जज्ज्योतिः-सहजबिलसदरत्नदीपस्य ] दैदीप्यमान और
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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