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________________ पथयणसारो ] [ २०७ वरीप्रवृत्तिमभ्युपगतः कृतकृत्यतामवाप्य नितान्तमनाकुलो भूत्वा प्रलीनभेदवासनोन्मेषः स्वयं साक्षाद्धर्म एघास्मीत्यवतिष्ठते जो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरागचरियम्हि । अन्भुठ्ठिदो महप्पा धम्मो ति विसेसिदो समणो ॥६॥ यो निहतमोहदृष्टिरागमकुशलो विरागचरिते । ___ अभ्युत्थितो महात्मा धर्म इति विशेषितः श्रमण: ।।२।। यदयं स्वयम्गमा धर्मो भवति म बल मनोरथ एव. तस्य त्वेका बहिर्मोहदृष्टिरेव विहन्त्री। सा चागमकौशलेनात्मज्ञानेन च निहता, नात्र मम पुनर्भावमापत्स्यते । ततो वीतरागचारित्रसूत्रितावतारो ममायमात्मा स्वयं धर्मो भूत्वा निरस्तसमस्तप्रत्यूहतया नित्यमेव निष्कम्प एवावतिष्ठते । अलमति विस्तरेण । स्वस्ति स्याद्वादमुद्रिताय जैनेन्द्राय शब्दब्रह्मणे स्वस्ति तन्मूलायात्मतत्त्वोपलम्भाय च, पत्प्रसादादुग्रन्यितो झगित्येवासंसारबद्धो मोहअन्थिः । स्वस्ति च परमवीतरागचारित्रात्मने शुद्धोपयोगाय, यत्प्रसादादयमात्मा स्वयमेव धर्मो भूतः ॥१२॥ भूमिका-"उपसंपये साम्यं यतो निर्बाणसंप्राप्तिः" इस प्रकार (पांचवीं गाथा में) प्रतिज्ञा करके, 'चारित्रं हलु धर्मः' धर्मः यः 'तत् साम्यं इति निर्दिष्टं' इस प्रकार (सातवीं गाथा में) साम्य के धर्म-पनेको निश्चित करके, 'परिणमति येन द्रव्यं तत्कालं तन्मयं इलि प्रज्ञप्तं तस्मात् धर्मपरिणत: आत्मा धर्मः मन्तव्यः" इस प्रकार (आठवीं गाथा में) जो आत्मा का धर्मस्व कहना प्रारम्म किया और जिसकी सिद्धि के लिये "धर्मण परिणतात्मा आत्मा यदि शुद्धसंप्रयोगयुतः प्राप्नोति निर्वाणसुखं'' इस प्रकार (ग्यारहवीं गाथा में) निर्वाण सुख का साधन शुद्धोपयोग कयन करने के लिये प्रारम्भ किया, विरोधी शुभ अशुभ उपयोगों को नष्ट किया (हेय बताया), शुद्धोपयोग के स्वरूप को (चौदहवीं गाथा में) वर्णन किया, उस (शुद्धोपयोग) के प्रसाद से उत्पन्न होने वाले आत्मा के सहज ज्ञान और आनन्द को समझाते हुये ज्ञान के स्वरूप का (गाथा २१ से ५२ तक) और सुख के स्वरूप का (माथा ५३ से ६८ तक) विस्तार किया, उसको (आत्मा के धर्मत्व को) अब किसी भी प्रकार शुद्धोपयोग के प्रसाद से (माथा ७८ से ६१ तक) सिद्ध करके, परम निःस्पृह आत्मतरत पारमेश्वरी प्रवृत्ति को प्राप्त होते हुये कृत कृत्यता को प्राप्त करके अत्यन्त अनाकुल होकर, जिनके मेवयासना (विकल्प परिणाम) की प्रगटता का प्रलय हुआ है ऐसे होते हुए ठहरते हैं। अब (आचार्य देव) मैं स्वयं साक्षात् धर्म ही हूँ" इस प्रकार रहते है (ऐसे भाव में निश्चल-स्थिर होते हैं)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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