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________________ [ ४४६ पवमणसारो ] न जहाति स खलु शुद्धात्मपरिणतिरूपं श्रामण्याथ्यं मार्ग दूरादपहायाशुद्धात्मपरिणतिरूपमुन्मार्गमेव प्रतिपद्यते । अतोऽवधार्यते अशुद्धनयावशुद्धात्मलाभ एव ॥ १६०॥ भूमिका – अब, यह कहते हैं कि अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा की ही प्राप्ति होती है अन्वयार्थ – [ यः तु ] जो [ देहद्रविणेषु ] देहधनादिक में [ अहं मम इदम् ] 'मैं यह हूं. और यह मेरा है' [इति ममतां] ऐसी ममता को [ न त्यजति ] नहीं छोड़ता, [सः] वह [ श्रामण्यं त्यक्त्वा ] श्रमणता को छोड़कर [ उन्मार्ग प्रतिपन्न भवति ] उन्मार्ग को प्राप्त होता है । टीका--जो आत्मा, शुद्धद्रव्य के निरूपणस्वरूप निश्चयनय से निरपेक्ष अशुद्धद्रश्य के निरूपण स्वरूप व्यवहारनय से उत्पन्न हुआ है, ऐसा वर्तता हुआ, 'मैं यह हूँ और यह मेरा है' इस प्रकार आत्मीयता से देह धनादिक परद्रव्य में ममत्व नहीं छोड़ता, वह आत्मा वास्तव में शुद्धात्मपरिणतिरूप श्रामण्य नामक मार्ग को दूर से छोड़कर अशुद्धात्म-परिणतिरूप उन्मार्ग को ही प्राप्त होता है। इससे निश्चित होता है कि अशुद्धनय से अशुद्धात्मा की ही प्राप्ति होती है ॥ १६० ॥ तात्पर्यवृत्ति अथाशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव भवतीत्युपदिशति - व्यवहार ण चर्यादि जो दु मर्मात न त्यजति यस्तु ममतां ममकाराहंकारादिसमस्त विभावरहितसकलविमलकेवलज्ञानाद्यनन्तगुणस्त्ररूपनिजात्म पदार्थनिश्चलानुभूतिलक्षणनिश्चयनयरहितत्वेन मोहितहृदयः सन् ममतां ममत्वभावं न त्यजति यः । केन रूपेण ? अहं ममेदंत्ति अहं ममेदमिति । केषु विषयेषु ? देहदविणेसु देद्रव्येषु देहे देहोऽहमिति परद्रव्येषु ममेदमिति सो सामण्णं चत्ता पडिवण्णो होदि उम्मग्गं स श्रामण्यं त्यक्त्वा प्रतिपन्नो भवत्युन्मार्गं स पुरुषो जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखशत्रुमित्रनिन्दाप्रशंसादिपरम माध्यस्थ्यलक्षणं श्रामण्यं यतित्वं चारित्रं दूरादपहाय तत्प्रतिपक्षभूतमुन्मार्ग मिथ्यामार्ग प्रतिपन्नो भवति । उन्मार्गाच्च संसारं परिभ्रमति । ततः स्थितं अशुद्धनयादशुद्धात्मलाभ एव ।। १६० ।। उत्थानिका- आगे अशुद्धनय से अशुद्ध आत्मा का लाभ ही होता है, ऐसा उपदेश करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ- (जो दु) जो कोई ( देहबविणेसु) शरीर तथा धनादि में ( अहं ममेदंति) 'मैं उन रूप हूँ' व वे मेरे हैं ऐसे (ममत्त ) ममत्व को (ण चर्यादि) नहीं छोड़ता है । (सो) वह (सामण्णं) मुनिपना ( चत्ता) छोड़कर (उम्मग्गं पडिषण्णो होइ ) उन्मार्ग को प्राप्त हो जाता है। जो कोई ममकार अहंकार आदि सर्व विभावों से रहित सर्व प्रकार
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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