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________________ १६० ] [ पवयणसारो तथाहि--देवता निर्दोषिपरमात्मा, इन्द्रियजयेन शुद्धात्मस्वरूप प्रयत्नपरी यतिः, स्वयं भेदाभेदरत्नत्रयाराधकस्तदर्थिनां भव्यानां जिनदीक्षादायको गुरुः पूर्वोक्तदेवतायतिगुरूणां तत्प्रतिविम्बादोनां च यथासम्भवं द्रव्यभावरूपा पूजा, आहारादिचतुविधदानं च आचारादिकथितशीलतानि तथंबोदिसा जिन गुणसंपत्त्यादिविधिविशेषाश्च । एतेषु शुभानुष्ठानेषु योऽसौ रतः द्वेषरूपे विषयानुरागरूपे शुभानुष्ठाने विरतः स जीवः शुभोपयोगी भवतीति सूत्रार्थः ॥१६६॥ उत्थानिका -- यद्यपि पहले छः गाथाओं के द्वारा इन्द्रियों के सुख का स्वरूप कहा है तथापि फिर भी उसी को विस्तार के साथ कहते हुए उस इन्द्रिय सुख के साधक शुभोयोग को कहते हैं— अथवा दूसरी पातनिका है कि पीठिका में जिस शुभोपयोग का स्वरूप सूचित किया है उसीका यहां इन्द्रियसुख के विशेष कथन में इन्द्रिय सुख के विशेष कथन में इन्द्रिय सुख का साधक रूप विशेष आध्यान करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ --- जो ( देववजदिगुरुपूजासु) देवता, यति, गुरु की पूजा में ( चैव दाणम्मि) तथा दान में ( वा सुसोलेसु) और सुशील रूप चारित्रों में ( उववासादिसु ) तथा उपवास आदिकों में (ग्लो ) रत है, यह (सहोवओगप्पगो अप्पा) शुभोपयोगधारी आत्मा कहा जाता है । विशेष यह है कि जो सवं दोष-रहित परमात्मा है, यह देवता है, जो इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करके शुद्ध आत्मा के स्वरूप के साधन में उद्यमवान है । वह यति है। जो स्वयं निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय का आराधना करने वाला है और ऐसी आराधना के बाहने वाले भव्यों को जिन-दीक्षा का देने वाला है, वह गुरु है । इन देवता, यति और गुरुओं की तथा उनकी मूर्ति आदिकों को यथासम्म अर्थात् जहां जैसी सम्भय हो वैसी द्रव्य और भाव पूजा करना, आहार, अभय, औषधि और विद्यादान ऐसा चार प्रकार दान करना आचारादि ग्रन्थों में कहे प्रमाण शीलव्रतों को पालना तथा जिनगुणसम्पत्ति को आदि लेकर अनेक विधि विशेष से उपवास आदि करना, इतने शुभ कार्यों में लीनता करता हुआ तथा द्वेषरूप भाव व विषयों के अनुराग रूप भाव आदि अशुभ उपयोग से विरक्त होता हुआ जीव शुभोपयोगी होता है, ऐसा सूत्र का अर्थ है ॥ ६६ ॥ भावार्थ - यहां आचार्य ने शुद्धोपयोग में प्रीतिरूप शुभोपयोग का स्वरूप बताया है अथवा अरहंत, सिद्ध परमात्मा के मुख्य ज्ञान और आनत्व स्वभायों का वर्णन करके उन परमात्मा के आराधन की सूचना की है अथवा मुख्यता से उपासक का कर्तव्य बताया है। शुभोपयोग तोत्र कषायों के अभाव में होता है ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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