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________________ पवयणसारो ] [ १५६ य अन्वयार्थ – [ देवता- - यतिगुरुपूजासु] देव, यति और गुरु की पूजा में [ चैव ] तथा [ दाने] दान में [ सुशीलेषु वा ] तथा सुशीलों में [ उपवासादिषु ] और उपवासादिकों में [ रक्तः आत्मा ] लीन आत्मा [ शुभोपयोगात्मकः] शुभोपयोगात्मक (शुभोपयोगमयी ) है । टीका - जब यह आत्मा दुःख की साधनभूत द्वेषरूप तथा इन्द्रिय विषय के अनुराग रूप अशुभोपयोग भूमिका को उल्लंघन करके, देव गुरु यति की पूजा, दान, शील और उपarafar के प्रीतिस्वरूप धर्मानुराग को अंगीकार करता है, तब ( वह ) इन्द्रियसुख के कारणभूत शुभोपयोग भूमिका में अधिरुढ कहलाता है । विशेषार्थ - अतीन्द्रियसुख का कथन करने के पश्चात्, अब आचार्य महाराज इन्द्रियसुख को हेय, दुःखरूप तथा त्याज्य दिखलाते हैं । उसी प्रकरण में, इस इन्द्रिय-सुख के साधनभूत निरतिशय शुभ परिणाम (पुण्य) को भी, कारण में कार्य का उपचार करके, हेय, दुखरूप तथा त्याज्य बतलाते हैं । अतः यहां इस प्रकरण में उस निरतिशय पुण्य का कथन है, जो इन्द्रिय-सुख को उपादेय मानते हुये, मात्र उस इन्द्रिय-सुख की प्राप्ति के लिये किया जाता है। इस कुल प्रकरण में इस बात को ध्यान रखने को अत्यन्त आवश्यक है, वरना भ्रम हो सकता है । जो सातिशयपुण्य परमार्थदृष्टि से मोक्ष प्राप्ति के लिये किया जाता है, उस सातिशयपुण्य कथन स्वयं ग्रंथकार ने आगे गाथा २४५ से प्रारम्भ किया है और उसको मोक्ष का साधन बतलाया है। विशेषकर गाथा २४५ से २६० तक देखने योग्य है । आचायों के कथन में पूर्वापर-विरोध नहीं हो सकता है । अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि यहां गाया ६६ से कुल प्रकरण निरतिशयपुण्य का है, जो मात्र इन्द्रिय-सुख की प्राप्ति के लिये किया जाता है । इन्द्रिय सुख हेय है, अतः उसके साधनभूत इन्द्रिय-जनित ज्ञान अथवा क्षायोपशमिकज्ञान को भी गाथा ६४ आदि में हेय बतलाया है। इसका यह अभिप्राय नहीं है कि क्षायोपशमिकज्ञान तथा शुभोपयोग सर्वथा हेय हैं । तात्पर्यवृत्ति तद्यथा - अथ यद्यपि पूर्व गाथापट्केनेन्द्रियसुखस्वरूपं भणितं तथापि पुनरपि तदेव विस्तरेग कथयन् सन् तत्साधकं शुभोपयोगं प्रतिपादयति, अथवा द्वितीयपातनिका -पीठिकायां यच्छुभोपयोगस्वरूपं सूचितं तस्येदानीमिन्द्रियसुख विशेषविचार प्रस्तावे तत्साधकत्वेन विशेष विवरणं करोति - teefay जासु चेr दाणम्मि वा सुसीले देवतायतिगुरुपूजासु चैव दाने वा सुशीलेषु उवासाविसु रत्तो तथैवोपवासादिषु च रक्त आसक्तः अप्पा जीवः सुहोबओगप्पगो शुभयोगात्मको भण्यते इति ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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