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________________ २१८ ] [ पवयणसारो अब आगे सम्यक्त्व को कहते हैं क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना साधु नहीं होता है ( तम्हा) इस कारण से ( तस्स ) उस सम्यक्त्व सहित सम्यक्चारित्र से युक्त पूर्व में कहे हुए साधु को ( माई किच्चा ) नमस्कार करके ( णिच्चति तं मणो होज्जं ) तथा नित्य ही उन साधुओं में मन को धारण करके ( परमविणिच्छयाधिगमं ) परमार्थ जो एक शुद्ध बुद्ध एक स्वभाव रूप परमात्मा है उसको विशेष करके संशय आदि से रहित निश्चय कराने वाले सम्यक्त्व को अर्थात् जिस सम्यक्त्व से शंका आदि आठ दोष रहित वास्तव में जो अर्थ का ज्ञान होता है उस सम्यक्त्व को अथवा अनेक धर्मरूप पदार्थ - समूह का अधिगम जिससे होता है ऐसे कथन को ( संगहादो) संक्षेप से (वोच्छामि ) कहूंगा । उत्थानिका- आगे पदार्थ के द्रव्य गुण पर्याय स्वरूप को कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( खलु ) निश्चय से ( अत्थो ) ज्ञान का विषयभूत पदार्थ ( दध्वमओ) द्रव्यमय होता है। क्योंकि वह पदार्थ तिर्यक्- - सामान्य तथा ऊध्यता सामान्यमय द्रव्य से निष्पन्न होता है अर्थात् उसमें तिर्यक सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य रूप द्रव्य का लक्षण पाया जाता है। इन दो प्रकार के सामान्य का स्वरूप ऐसा है-एक ही समय में नाना व्यक्तियों में पाया जाने वाला जो अन्वय उसको तिर्यक् सामान्य कहते हैं । यहाँ यह दृष्टांत है कि जैसे नाना प्रकार सिद्ध जीवों में यह सिद्ध हैं, ऐसा जोड़ रूप एक तरह के स्वभाव को रखने वाला सिद्धकी जाति का विश्वास है - इस एक जातिपने को तिर्यक् सामान्य कहते हैं तथा भिन्न-भिन्न समयों में एक ही व्यक्ति का एक तरह का ज्ञान होना सो उता सामान्य कहा जाता है। यहाँ यह दृष्टांत है कि जैसे जो कोई केवलज्ञान को उत्पत्ति के समय मुक्तात्मा है दूसरे तीसरे आदि समयों से भी वही है, ऐसी प्रतीति होना सो ऊर्ध्वता सामान्य है । अथवा दोनों सामान्य के दो दूसरे दृष्टांत हैं--जैसे नाना गौके शरीरों में यह गौ है, यह गौ है ऐसो गो-जाति की प्रतीति होना सो तिर्यक् सामान्य है । तथा जो कोई पुरुष बाल, कुमारादि अवस्थाओं में था सो ही यह देवदत्त है, ऐसा विश्वास सो ऊर्ध्वता सामान्य है । ( दव्वाणि) द्रश्य सब (गुणम्पगाणि) गुणमयी ( अणिदाणि) कहे गए हैं। जो द्रव्य के साथ अन्वयरूप रहें अर्थात् उसके साथ-साथ बतें वे गुण होते हैं- ऐसा गुण का लक्षण है । जैसे सिद्ध जीव द्रव्य है, सो अनन्तज्ञान सुख आदि विशेष गुणों से तथा अगुरुलघुक आदि सामान्यगुणों से अभिन्न हैं अर्थात् ये सामान्य विशेष गुण सिद्ध आत्मा के साथ
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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