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________________ ६२२ ] [ पवयणसारो भूमिका-अब, यह बतलाते हैं कि असत्संग निषेध्य है अन्वयार्थ-[निश्चितमूत्रार्थपद:] जिसने सूत्रों के पदों को और अर्थों को निश्चित किया है, [समितकषायः] जिसने कषायों का शमन किया है, [च] और [तपोऽधिकः अपि] जो अधिक तपवान् है ऐसा जीव भी [यदि] यदि [लौकिकजनसंसर्ग] लौकिक जनों के संसर्ग को [न त्यजति] नहीं छोड़ता, [संयत: न भवति] तो वह संयत नहीं हैं। टीका-(१) विश्व के वाचक, 'सत्' लक्षणवान् सम्पूर्ण ही शब्दब्रह्म और उस शम्दब्रह्म के वाच्य 'सत्' लक्षण वाले सम्पूर्ण ही विश्व उन दोनों के ज्ञेयाकार अपने में युगपत् अनुस्यूत हो जाने से उन दोनों का अधिष्ठानमूत 'सत्' लक्षण वाला ज्ञाता निश्चयनय द्वारा 'सूत्र के पदों और अर्थों का निश्चय करने वाला' हो (२) निरुपराग उपयोग के कारण (ज्ञातृतत्व) "जिसने नायागों को शामित किया ऐसा' हो, और (३) निष्कंप उपयोग का बहुत बार अभ्यास करने से (ज्ञातृतत्व) 'अधिक तप वाला' हो, इस प्रकार तीन कारणों से जो जीव भली-भांति संयत हो, वह भी लौकिक जनों के संग से असंयत हो होता है, जैसे अग्नि के संग से जल उष्ण अर्थात् विकारी हो जाता है उसी प्रकार मुनि के भी कुसंगति से विकार अवश्यंभावी है। इसलिये लौकिक संग सर्वथा निषेध्य हो है ॥२६॥ ___ तात्पर्यवृत्ति तद्यथा अथ लौकिकासंसर्गं प्रतिषेधयति;-- णिच्छिदसुत्तत्यपदो निश्चितानि ज्ञातानि निीतान्यनेकान्तस्वभावनिजशुद्धात्मादिपदार्थप्रतिपादकानि सूत्रार्थपदानि येन स भवति निश्चितसूत्रार्थपदः समिवकसाओ परविषये क्रोधादिपरिहारेण तथाभ्यन्तरे परमोपशमभावणितनिजशुद्धात्मभावनाबलेन च शमितकषायः। सोधिगो चावि अनशनादिबहिरङ्गतपोबलेन तथैवाभ्यन्तरे शुद्धात्मभावनाविषये प्रतिपन्नाद्विजयनाच्च तपोऽधिकरचापि सन् स्वयं संयतः कर्ता लोगिगजणसंसरगं ण चयदि जदि लोकिकाः स्वेच्छाचारिणस्तेषां संसर्गो लौकिकसंसर्गस्तं न त्यजति यदिचेत् संजदोणहविदि तहि संयतो न भवतीति । अयमत्रार्थ:-स्वयं भावितात्मापि यद्यसंवृतजनसंसर्ग न त्यजति तदातिपरिचयादग्निसंङ्गतं जलमिव विकृतिभावं गच्छतीति ।।२६८।। उत्थानिका-आगे लौकिक जनों की संगति को मना करते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ--(णिच्छिदसुत्तत्थपदो) जिसने सूत्र के अर्थ और पदों को निश्चय पूर्वक जान लिया है, (समिक्कसायो) कषायों को शांत कर दिया है (तओधिको चावि) तथा तप करने में भी अधिक है ऐसा साधु (जदि) यदि (लोगिगजणसंसर्ग) लौकिक जनों का अर्थात् असंयमियों का भ्रष्टचारित्र साधुओं का संगम (ण जहदि) नहीं त्यागता है (संजदो ण हदि) तो वह संयमी नहीं रह सकता है । जिसने अनेक धर्ममय अपने शुद्धात्मा
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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