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________________ पवयणसारो । । ६२३ आदि पदार्थों को बताने वाले सूत्र के अर्थ और पदों को अच्छी तरह निर्णय करके जान लिया है, अन्य जीवों में व पदार्थों में क्रोधादि कषाय को त्याग करने से तथा मीतर परम शांत भाव में परिणमन करते हुए अपने शुद्धात्मा की भावना के बल से कषायों को शांत कर दिया है, तथा अनशन आदि छः बाहरी तपों के बल से व अंतरंग में शुद्ध आत्मा की भावना के सम्बन्ध में औरों से विजय प्राप्त किया है, ऐसा तप करने में भी श्रेष्ठ है। इन तीन विशेषणों से युक्त साधु होने पर भी यदि स्वेच्छाचारी लौकिक जनों का संसर्ग न छोड़े तो वह स्वयं संयम से छट जाता है। भाव यह है कि स्वयं आत्मा की भावना करने वाला होने पर भी यदि अनर्गल व स्वेच्छाचारी मनुष्यों की संगति को नहीं छोड़े तो अति परिचय होने से जैसे अग्नि की संगति से जल उष्णपने को प्राप्त हो जाता है, ऐसे वह साधु विकारी हो जाता है ॥२६॥ अथानुकम्पालक्षणं कथ्यते; तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिद वठ्ठण जो हि दुहिदमणो। पडिबज्जदि तं किंवया तस्सेसा होदि अणुकंपा ॥२६॥ तिसिदं बुभुक्खिवं वा दुहिरं दठ्ठण जो हि दुहिदमणो पडिवजदि तृषितं बा बुभुक्षितं वा दुःखित वा दृष्ट्वा कमपि प्राणिनं यो हि स्फुटं दुःखितमना: सन् प्रतिपयते स्वीकरोति । के कर्मतापन्नम् ? तं प्राणिनम् । कया? किवद्या कृपया दयापरिणामेन तस्सेसा होदि अणुकंपा तस्य पुरुषस्यषा प्रत्यक्षीभूता शुभोपयोगरूपानुकम्पा दया भवतीति । इमां चानुकम्पा ज्ञानी स्वस्थभावनामविनाशयन् संक्लेशपरिहारेण करोति । अज्ञानो पुनः संक्लेशेनापि करोतीत्यर्थः ।।२६८-१।। उत्थानिका-आगे शुभोपयोग प्रकरण में अनुकम्पा का लक्षण कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(तिसिदं) किसी प्राणी को प्यासे (बुभुक्खिदं) भूखे (वा दुहिवं) या दुखी (दळूण) देखकर (जो हि) जो निश्चय से (दुहिक्मणो) दुःखित मन होकर (तं) उस प्राणी को (किवया) दया परिणाम से (पडिवज्जदि) स्वीकार करता हैउसका मला करता है (तस्से) उसके (सा अणकप्पा) वह अनुकम्पा (हदि) होती है । ज्ञानी जीव ऐसी क्या को अपने आत्मीक भाव को नाश न करते हुए संक्लेश भाव से रहित होते हुए करते हैं जबकि अज्ञानी संक्लेश भाव से भी करता है। अथ लौकिकलक्षणमुपलक्षयति णिग्गंथं 'पव्वइदो बट्टदि जदि एहिहिं कम्मेहिं । सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंपजुत्तो वि ॥२६६॥ नम्रन्थ्यं प्रजितो वर्तते यद्यहिकः कर्मभिः । स लौक्रिक इति भणितः संयमतपः संप्रयुक्तोऽपि ।।२६६।। - १. पञ्चविदो (ज७ वृ०)।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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