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पवयणसारो ।
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दृश्य-दर्शक सम्बन्ध है अथवा समवशरण में प्रत्यक्ष जिनेश्वर को देखकर यह मानता है कि यह मेरे द्वारा आराधने योग्य हैं, यहां भी यद्यपि देखने व जानने का जिनेश्वर के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि आराध्य-आराधक सम्बन्ध है। तैसे ही मूर्तिक द्रव्य के साथ बंध होना समझो।
यहां यह भाव है कि यद्यपि यह आत्मा निश्चयनय से अमतिक है तथापि अनादि कर्म बन्ध के वश से व्यवहार से मतिक होता हआ द्रव्यबंध के निमित्तकारण रागावि विकल्प भावबंध के रूप उपयोग को करता है। ऐसी अवस्था होने पर यद्यपि मूर्तिक द्रव्यकर्म के साथ आत्मा का तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है तथापि पूर्व में कहे हुए दृष्टान्त से संश्लेष सम्बन्ध है इसमें कोई दोष नहीं है ॥१७४॥
भावार्थ-श्री तस्वार्थसार में अमृतचन्द्रस्वामी ने इसी प्रश्न को उठाकर कि अमूर्तिक का बन्ध मर्तिक के साथ कैसे होता है ? इस तरह समाधान किया हैन च बन्धाप्रसिद्धिः स्यान्मूतः कर्मभिरात्मनः । अमूर्त रित्यनेकान्तात्तस्य मूत्तित्त्वसिद्धितः ॥१६॥ अनादिनित्यसम्बन्धात्सह कर्मभिरात्मनः। अमूर्तस्यापि सत्यक्ये मूर्तत्त्वमवसीयते ॥१७॥ बन्धं प्रति भवत्येकमन्योन्यानुप्रवेशः । युगपद्वावितः स्वर्ण रौप्यवज्जीवकर्मणोः ॥१८॥ तथा च मूर्तिमानात्मा सुराभिभवदर्शनात् । न ह्यमूर्तस्य नभसो मदिरा मवकारिणी ॥१६॥
अमतिक आत्मा के साथ मूर्तिककर्मों का बंध अमेकान्त से असिद्ध नहीं है क्योंकि किसी अपेक्षा से आत्मा के मूर्तिपना सिद्ध है। इस अमूर्तिक आत्मा का भी द्रव्यकों के साय प्रवाह रूप से अनादिकाल से धारावाही सदा का सम्बन्ध चला आ रहा है, इसी से उस मतिक द्रव्य कर्मों के साथ एकता होते हुए आत्मा मूर्तिक भी है। बन्ध होने पर जिसके साथ बन्ध होता है उसके साथ एक दूसरे में प्रवेश हो जाने पर परस्पर एकता हो जाती है, जैसे सुवर्ण और चांदी को एक साथ गलाने से दोनों एक रूप हो जाते हैं उसी तरह जीव और कर्मों का बन्ध होने से परस्पर एक रूप बन्ध हो जाता है। तथा यह कर्मबद्ध संसारी आत्मा मतिमान है क्योंकि मदिरा आदि से इसका ज्ञान बिगड़ जाता है। यदि अमूर्तिक होता तो जैसे अमूर्तिक आकाश में मदिरा रहते हुए आकाश को मवधान नहीं कर सकती वैसे आत्मा के कभी ज्ञान में विकार नहीं होता। संसारी आत्मा मतिक है इसी से उसके कर्मबन्ध होता है जैसे आत्मा निश्चय से अमूतिक है वैसे उसके निश्चय से बन्ध भी नहीं है। जैसे आत्मा व्यवहार से मतिक है वैसे उसके व्यवहार से बन्ध भी होता है। इस तरह अनेकान्त से समझ लेने में कोई प्रकार की शंका नहीं रहती है।