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________________ ६८ । [ पवयणसारो _____टीका-जो ज्ञाता वास्तव में जेय पदार्थ रूप परिणत होता है (राग-द्वेष सहित, सविकल्प रूप, क्रम-पूर्वक जानता है) तो उसके सफल फर्म यन के क्षय से प्रवर्तमान स्वाभाविक जानपने के कारण (धायिक शान) नहीं है अथवा उसके ज्ञान ही नहीं है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ रूप से परिणति के द्वारा, मृगतृष्णा में जलसमूह की कल्पना करने की भावना वाला वह (आत्मा) अत्यन्त दुःसह कर्म-भार को ही भोगने वाला है, ऐसा जिनेन्द्रों के द्वारा कहा गया है ॥४२॥ तात्पर्यवृत्ति अथ रागद्वेषमोहाः बन्धकारणं, न च ज्ञानमित्यादिकथन रूपेण गाथापञ्चकपर्यन्तं व्याख्यानं करोति । तद्यथा-यस्येष्टानिष्टविकल्परूपेण कर्मबन्धकारणभूतेन ज्ञेयविषये परिणमनमस्ति तस्य क्षायिकज्ञानं नास्तीत्यावेदयति । -परिणमवि यमलैं णादा जद नीलमिदं पीतमिदमित्यादिविकल्परूपेण यदि ज्ञयार्थ परिणमति ज्ञातात्मा व खाइयं तस्स गाणंत्ति तस्यात्मनः क्षायिकज्ञानं नैवास्ति । अथवा ज्ञानमेव नास्ति । कस्मान्नास्ति चिणिवः पयंस कम्ममत्तात पुरुषं कमंतापन्न जिनेन्द्राः कर्तारः उक्तवन्तः । किं कुर्वन्तं ? क्षपयन्तमनुभवन्तं । किमेव ? कर्मव निर्विकारसहजानन्दैकसुखस्वभावानुभवनशून्यः सन्नुदयागतं स्वकीयकर्मव स अनुभवन्नास्ते न च ज्ञानमित्यर्थः । अथवा द्वितीयव्याख्यानम् - यदि ज्ञाता प्रत्यर्थं परिणम्य पश्चादथं जानाति तदा अर्थाना मानन्त्यात्सर्वपदार्थपरिज्ञानं नास्ति। अथवा तृतीयव्याख्यानम्-बहिरङ्गजेयपदार्थान् यदा छद्मस्थावस्थायां चिन्तयति तदा रागादिविकल्परहितं स्वसंवेदनशानं नास्ति, तदभावे क्षायिकशानमेव नोत्पद्यते इत्याभिप्रायः ॥४२॥ उत्थानिका-आगे पाँच गाथाओं तक यह व्याख्यान करते हैं कि कि राग, द्वेष, मोह, बन्ध के कारण हैं, जान बंध का कारण नहीं है । प्रथम ही कहते हैं कि जिससे ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य पदार्थ में कर्मबंध का कारण रूप इष्ट तथा अनिष्ट विकल्प रूप से परिणमन है अर्थात् जो पदार्थों को इष्ट तथा अनिष्ट रूप से जानता है उनके क्षायिक अर्थात् केवलज्ञान नहीं होता है। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जदि) यदि (णादा) ज्ञासा आत्मा (णेयं अठ्ठ) जानने योग्य पदार्थरूप (परिणति) परिणमन करता है अर्थात् यह नील है, वह पीत है इत्यादि विकल्प उठाता है तो (तस्स) उस ज्ञानी आत्मा के (खाइयं णाणत्ति जेव) क्षायिकज्ञान नहीं ही है अथवा स्वाभिमान ज्ञान ही नहीं है। क्यों नहीं है इसका कारण कहते हैं कि (जिणिवा) जिनेन्द्रों ने (तं) उस सविकल्प जानने वाले को (कम्भ खक्यंत एष) कर्म का अनुभव करने वाला ही (उत्ता) कहा है । अर्थ यह है कि वह आत्मा विकार रहित स्वाभाविक आनन्दमयी एक सुख स्वभाव के अनुभव से शून्य होता हुआ उदय में आये हुए
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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