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________________ १७२ ] [ पबयणसारो वह सुख (१) [सपरं] पर सम्बन्ध युक्त (पराधीन) (२) [बाधासहितं] बाधासहित, (३) [विच्छिन्नं] विच्छिन्न, (४) [बंधकारणं] बंध का कारण, (५) [विषम] और विषम है, [तथा] इस प्रकार [दुःख एवं] वह दुख ही है। ___टीका--(१) पर-सम्बन्ध-युक्त होने से, (२) बाधा-सहित होने से, (३) विच्छिन्न होने से, (४) बन्धका कारण होने से, और (५) विषम होने से पुण्य-जन्य भी इन्द्रियसुख दुखरूप ही है। गाथा का अर्थ पूरा हो चुका। अब उसके भाव को स्वयं टीकाकार स्पष्ट करते हैं-(१) 'परके सम्बन्ध वाला' होता हुआ पराश्रयता के कारण पराधीनता से, (२) 'वाधा सहित' होता हुआ भोजन, पानी और मैथुन आदि तृष्णा को प्रगटताओं से युक्त होने के कारण अत्यन्त आकुलता से, (३) 'विच्छिन्न' होता हआ असातावेदनीय का उदय जिसे च्युत कर देता है, ऐसे सातावेदनीय के उदय को प्रवर्तता से अनुभव में आने के कारण विपक्ष की उत्पत्ति वाला होने से, (४) 'बंध का कारण होता हुआ, विषय-उपभोष के मार्ग में लगी हुई रागादि दोषों की सेना के अनुसार बन्ध वाले धन-कर्म-समूह के कारण परिणाम में (फल समय में) दुःसह (दुःख से सहने योग्य) होने से और (५) विषम' होता हुआ विशेष वृद्धि और विशेष हानि में परिणत होने के कारण अत्यन्त अस्थिरता से (इन्द्रिय सुख) दुःख ही है। जबकि ऐसा है (इन्द्रिय सुख दुःख ही है) तो पुण्य भी पाप की भांति दुःख के साधन-पने को प्राप्त हुआ। (दुःसा का साधन ही सिद्ध हुआ)। तात्पर्यवसि अथ पुनरपि पुण्योत्पन्नस्येन्द्रियसुखस्य बहुधा दुःखत्वं प्रकाशयति, सपरं सह परद्रव्यापेक्षया वर्तते सपरं भवतीन्द्रियसुखं, पारमाथिकसुखं तु परद्रव्यनिरपेक्षत्वादात्माधीन भवति । बाधासहिय तीब्रक्षुधातृष्णाद्यनेकबाधासहितत्वाद्वाधासहितमिन्द्रियसुखं, निजात्मसुखं तु पूर्वोक्तसमस्तवाधारहितत्वादन्यावाधं । विच्छिणं प्रतिपक्षभूतासातोदयेन सहितत्वाद्विश्छिन्नं सान्तरितं भवतीन्द्रियसुखं, अतीन्द्रियसुखं तु प्रतिपक्षभूतासातोदयाभावान्निरन्तरं । बंधकारण दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षाप्रभूत्यनेकापध्यानवशेन भाविन रकादिदुःखोत्पादककर्मबन्धोत्पादकत्वाद्वन्धकारणमतीन्द्रियसुखं तु सर्वापध्यानरहितत्वादमन्धकारणं । विसमं विगतः शमः परमोपशमो यत्र तद्विषममतृप्तिकरं हानिवृद्धिसहितत्वाद्वा विषमं, अतीन्द्रियसुखं तु परमतृप्तिकर हानिवृद्धिरहितं च । मं इंदियहि लद्धतं सीवखं दुक्खमेव तहा यदिन्द्रियैलब्ध संसारसुखं तत्सुखं यथा पूर्वोक्तपञ्चविशेषण विशिष्टं भवति तथैव दुःखमेवेत्यभिप्रायः ॥७६।। एवं पुण्यानि जीवस्य तृष्णोत्पादकत्वेन दुःखकारणानि भवन्तीति कथनरूपेण द्वितीयस्थले गाथाचतुष्टयं गतम् ।
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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