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________________ ३४० ] [ पवयणसारो में या उसके एक प्रदेश में रहने का (कोई) नियम नहीं है। काल, जीव तथा पुद्गल एक द्रव्य को अपेक्षा से लोक के एक देश में रहते हैं और अनेक द्रव्यों की अपेक्षा से अंजनचूर्ण (काजल) से भरी हुई डिबिया के न्यायानुसार समस्त लोक में हो हैं ॥१३६।। तात्पर्यवृत्ति अथ द्रव्याणां लोकाकाशेऽवस्थानमाख्याति लोगालोगेसु णमो लोकालोक्योरधिकरणभूतयोर्नभ आकाशं तिष्ठति धम्माधम्महि आददो लोगो धर्माधर्मास्तिकायाभ्यामाततो व्याप्तो भूतो लोकः । कि कृत्वा ? सेसे पडुच्च शेषो जीवपुद्गलो प्रतीत्याधित्य । अयमत्रार्थः—जीवपुद्गली तावल्लोके तिष्ठतस्तयोर्गतिस्थित्योः कारणभूतो धर्माधर्मावपि लोके। कालो कालोऽपि शेषो जीवपद्गलौ प्रतीत्ये लोके । कस्मादिति चेत् ? जीवपुद्गलाभ्यां नवजीर्णपरिणत्या व्यज्यमानसमय टिकादिपर्यायत्वात्। शेषशब्देन कि भण्यते ? जीवा पुण पुग्गला सेसा जोपा. पुद्गलाश्च पुनः शेम भण्वन्त इति । जनमत्र भावः—यथा सिद्धा भगवन्तो यद्यपि निश्चयेन लोकाकाशप्रमितशुद्धासंख्येयप्रदेश केवलज्ञानादिगुणाधारभूते स्वकीयस्वकीयभावे तिष्ठन्ति तथापि ब्यवहारेण मोक्षशिलायां तिष्ठन्तीति भण्यन्ते। तथा सर्वे पदार्था बपि निश्चयेन स्वकीयस्वकीयस्वरूपे तिष्ठन्ति तथापि व्यवहारेण लोकाकाशे तिष्ठन्तीति । अत्र यद्यप्यनन्तजीवद्रव्येभ्योऽनन्तगुणपुद्गलास्तिष्ठन्ति तथाप्येकदीपप्रकाशे बहुदीपप्रकाशवद्विशिष्टावगाहाक्तियोगेनासंख्येयप्रदेशेऽपि लोकेऽवस्थानं न विरुध्यते ।।१३६॥ उत्थानिका-आगे द्रव्यों का स्थान लोकाकाश में हैं, ऐसा बताते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ (णमो) आकाश द्रव्य (लोपालोगेसु) लोक और अलोकरूप है (सेसे पडुचच) शेष जीव पुद्गल को आश्रय करके (लोगो धम्माधम्मेहिं आददो) लोक धर्म और अधर्म द्रव्य से व्याप्त है तथा (कालो) काल है। (पुण सेसा जीवा पुग्गला) और वे दो शेष द्रव्य जीव और पुद्गल हैं । लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों का आधार एक आकाश द्रव्य है। इनमें से जीव पुद्गलों की अपेक्षा से धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय हैं, जिनसे यह लोकाकाश व्याप्त है । अर्थात् इस लोकाकाश में जीव और पुद्गल भरे हैं उन ही की गति और स्थिति को कारण रूप ये धर्म अधर्म भी लोक में हैं। काल भी इन जीव पुद्गलों की अपेक्षा करके लोक में है क्योंकि जीव पुद्गल को नई पुरानी अवस्था के होने से कालद्रव्य को समय घड़ी आदि पर्याय प्रगट होती हैं तथा जीव और पुद्गल तो इस लोक में हैं ही। यहां यह भाव है कि जैसे सिद्ध भगवान् यद्यपि लोकाकाश प्रमाण अपने शुद्ध असंख्यात प्रदेशों में हैं जो प्रदेश केवलज्ञान आदि गुणों के आधारभूत हैं तथा अपने-अपने स्वमाव में ठहरते हैं तथापि व्यवहारनय से मोक्षशिला पर ठहरते हैं, ऐसा आचार्य कहते
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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