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पत्रयणसारो ] अथ क्वामी प्रदेशिनोऽप्रदेशाश्चावस्थिता इति प्रज्ञापयति
लोगालोगेसु णभो धम्माधम्हि आददो लोगो। सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला' सेसा ॥१३६।।
लोकालोकयो भो धर्माधर्माभ्यामाततो लोकः ।
शेषो प्रतीत्य कालो जीवाः पुनः पुद्गलाः शेषौ ॥१३६।। आकाशं हि तावत् लोकालोकयोरपि बद्न्यसमायासमवाययोरविभागेन वृत्तत्वात् । धर्माधर्मों सर्वत्र लोके तन्निमित्तगमनस्थानानां जीवपुद्गलानां लोकाहिस्तदेकदेशे च गमनस्थानासंभवात् । कालोऽपि लोके जीवपुद्गलपरिणामव्यज्यमानसमयादिपर्यायत्वात्, स तु लोककप्रदेश पन्नाप्रदेशत्वात । लीवपुदगलौ तु यक्तित एव लोके षड्व्य समवायात्मक त्वाल्लोकस्य । किन्तु जीवस्य प्रदेशसंवर्तविस्तारधर्मत्वात् पुद्गलस्य बन्धहेतुभूतस्निग्धरूक्षगुणधर्मत्वाच्च तदेकदेशसर्वलोकनियमो नास्ति कालजीवपुद्गलानामित्येकद्रव्यापेक्षया एकदेश अनेकद्रव्यापेक्षया पुनरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकन्यायेन सर्वलोक एवेति ।।१३६॥
भूमिका-अब, यह बतलाते हैं कि ये प्रदेशो और अप्रदेशी द्रव्य कहां रहते हैं
अन्वयार्थ-[नभः] आकाश [लोकालोकयोः] लोकालोक में है, [लोक:] लोक [धर्माधर्माभ्याम् आततः] धर्म और अधर्म से व्याप्त है, [शेपी प्रतीत्य] शेष दो द्रव्यों की (जीव-पुद्गल की) प्रतीति से [कालः] काल (लोक में) तिष्ठ रहा है, [पुनः ] और [शेषौ] वे शेष दो द्रव्य | जीवाः पुद्गलाः] जीव और पुद्गल (लोक में) हैं।
टीका-प्रथम तो, आकाश लोक तथा अलोक में है, क्योंकि वह छह द्रव्यों के समवाय और असमवाय में विना विभाग के रहता है। धर्म और अधर्म प्रन्य सर्वत्र लोक में है, क्योंकि उनके निमित्त से जिनकी गति और स्थिति होती है ऐसे जीव और पुद्गलों को गति या स्थिति लोक से बाहर नहीं होती और न लोक के एक-देश में होती है, (अर्थात् लोक में सर्वत्र होती है)। काल भी लोक में है, क्योंकि जीव और पुद्गलों के परिणामों के द्वारा (काल को) समयादि पर्यायें व्यक्त होती हैं और वह काल लोक के एक प्रदेश में है, क्योंकि वह अप्रवेशी है । जीव और पुद्गल तो युक्ति से ही लोक में हैं, क्योंकि लोक छह व्रव्यों का समयायस्वरूप है।
किन्तु प्रदेशों का संकोच विस्तार होना जीव का धर्म होने के कारण और बंध के हेतुभूत स्निग्ध-रूक्ष गुण पुद्गल का धर्म होने के कारण जीव और पुवमल का समस्त लोक
१. गुग्गला (ज० वृत)