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________________ ५३८ ] पवयणसारो उत्थागिता-काने का आहार विहार को करते हुए तपोधन का स्वरूप कहते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ-(इहलोगणिरावेक्खो) जो इस लोक की इच्छा से रहित है, (परम्हि लोपम्हि अप्पडिबद्धो) परलोक सम्बन्धी अभिलाषा से रहित है, (रहिदकसाओ) व क्रोधादि कषायों से रहित है ऐसा (समणो) साधु (जुत्ताहारविहारो) योग्य आहार विहार करने वाला होता है। जो साधु टांकी से उकेरे के समान अमिट ज्ञाता दृष्टा एक स्वभाव रूप निज आत्मा के अनुभव के नाश करने वाली इस लोक में प्रसिद्धि, पूजा व लाम रूप अभिलाषाओं से शून्य है, परलोक में तपश्चरण करने से देवपद व उसके साथ स्त्री, देव परिवार व भोग प्राप्त होते हैं ऐसी इच्छा से रहित है, तथा कषाय रहित आत्मस्वरूप के अनुभव की स्थिरता के बल से कषाय रहित वीतरागी है वही योग्य आहार व विहार को करता है। यहाँ यह भाव है कि जो साधु इस लोक व परलोक की इच्छा छोड़कर व क्रोध लोभादि के वश न होकर इस शरीर को प्रदीप समान जानता है तथा इस शरीर रूपो-दीपक के लिये आवश्यक तैल रूप ग्रास मात्र को देता है, जिससे शरीररूपी दीपक बुझ न जावे । तथा जैसे दीपक से घट पट आदि पदार्थों को देखते हैं वैसे इस शरीररूपी दीपक की सहायता से वह साधु अपने परमात्म-पदार्थ को ही देखता या अनुभव करता है वही साधु योग्य आहार विहार करने वाला होता है । परन्तु जो शरीर को पुष्ट करने के निमित्त भोजन करता है वह युक्ताहार-विहारी नहीं है ॥२२६।। अथ पञ्चदशप्रमादैस्तपोधनः प्रमत्तो भवतीति प्रतिपादयति ; कोहादिरहि चउविहि विकहाहि तहिवियाणमस्थेहि । समणो हवदि पमत्तो उवजुत्तो णिहाहि ॥२२६-१॥ हववि क्रोधादिपंचदशप्रमादरहितचिच्चमत्कारमात्रात्मतत्त्वभावनाच्युतः सन् भवति। स कः कर्ता समणो सुखदुःखादिसमचित्तः श्रमणः । किविशिष्टो भवति ? पमत्तो प्रमत्तः प्रमादी । कैः कृत्वा ? कोहादिएहि चविहि चतुभिरपि क्रोधादिभिः विकहाहि स्त्रीभक्तचौरराजकथाभिः तहिदियाणमत्थेहि तथैव पञ्चेन्द्रियाणामथुः स्पर्शादिविषयः । पुनरपि किरूप: ? उबजुत्तो उपयुक्तः परिणतः । काभ्याम् ? हणिवाहि स्नेहनिद्राभ्यामिति ॥२२६-१॥ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि पन्द्रह प्रमाद हैं इनसे साधु प्रमादी होता है । अन्वय सहित विशेषार्थ—(चउविहि कोहादिएहि विकहाहि) चार प्रकार क्रोध आदि कषाय से व चार प्रकार विकथा-स्त्रो, भोजन, चोर, राजा कथा से (तहिदियाणमत्थेहि) तथा पांच इंद्रियों के विषयों से (हणिवाहि उवजुत्तो) स्नेह व निद्रा से उपयुक्त होकर (समणो) साधु (पमत्तो हवदि) प्रमावी होता है। सुख-दुःख आदि में समान चित्त रखने
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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