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________________ पवयणसारो ] [ १५३ अन्वयार्थ – [ यदि ] यदि [ जनस्य दृष्टि: ] प्राणी की आँख [तिमिरहरा ] अंधकार को नाश करने वाली (अंधेरे में देखने वाली ] हो तो [ दीपेन नास्ति कर्तव्यं ] ( उसको ) दीपक से कोई प्रयोजन नहीं है (अर्थात् दीपक उसको कुछ नहीं कर सकता ) [ तथा ] इसी प्रकार ( जहां ) [ आत्मा] आत्मा [ स्वयं ] स्वयं [ सौख्यं ] सुखरूप ( परिणमन करता है ) [न] वहां [ विषया: 1 विषय [ किं कुर्वन्ति ] क्या करते हैं ? (यानी कुछ नही ) । जैसे किन्हीं निशाचरों के ( उल्लू आदि रात्रि में विचरने वाले नाशक स्वभाव वाले दीपक के प्रकाशादि से कोई प्रकाश कुछ नहीं करता), इसी प्रकार इस आत्मा के पने से परिणमन करने वाले के, सुख साधन बुद्धि से ये भी विषय क्या करें (कुछ नहीं कर सकते ) ॥६७॥ टीका - आंख के स्वयमेव अन्धकार को नष्ट करने की शक्ति का सम्बन्ध होने से जीवों के ) अंधकार का प्रयोजन नहीं होता ( उन्हें दीपक का संसार अथवा मुक्ति में स्वयमेव सुखअज्ञानियों के द्वारा व्यर्थ आश्रय किए तात्पर्यवृति अथात्मनः स्वयमेव सुखस्वभावत्वान्निश्चयेन यथा देहः सुखकारणं न भवति तथा विषया अपीति प्रतिपादयति - जइ यदि विट्ठी नवतंत्ररजनस्य दृष्टिः तिमिरहरा अन्धकारहरा भवति जणस्स जनश्य ataण गरि कायध्वं दीपेन नास्ति कर्तव्यं तस्य प्रदीपादीनां यथा प्रयोजनं नास्ति तह सो सयमावा विसा कि सत्य कुरुवंति तथा निर्विषया मूर्त सर्व प्रदेशाह्लादक सहजानन्दैक लक्षण सुखस्वभावो निश्चयेनास्मय, तत्र मुक्तौ संसारे वा विषयाः किं कुर्वन्ति न किमपीति भावः ॥ ६७॥ उत्थानिका— आगे कहते हैं कि यह आत्मा स्वयं सुख स्वभाव को रखने वाला है इसलिये जैसे निश्चय करके देह सुख का कारण नहीं है वैसे इन्द्रियों के पदार्थ भी कारण नहीं हैं । के सुख अर्थात् दीपको का उसके लिए जो निश्चय करके पंचेन्द्रियों के अन्वय सहित विशेषार्थ - ( जइ ) जो ( जणस्स दिट्ठी) किसी प्राणी को दृष्टि रात्रि को ( तिमिरहरा) अंधकार को हरने वाली है अर्थात् अंधेरे में देख सकती है तो ( बोवेण काथव्वं णत्थि ) दीप से कर्त्तव्य कुछ नहीं है । कोई प्रयोजन नहीं है । ( तह) तैसे ( आदा सयम् सोक्खं ) षियों से रहित, अमूर्तिक, अपने सर्व प्रदेशों में आह्लाद रूप सहज आनन्द एक लक्षणमयी सुख स्वभाव वाला आत्मा स्वयं है ( तत्थ विसया कि कुव्वंति ) तो वहां मुक्ति अवस्था में तो इन्द्रियों के विषय रूप पदार्थ क्या कर सकते हैं ? यानी कुछ भी नहीं कर सकते, यह भाव है ||६७॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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