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________________ ६२६ ] [ पचयणसारो सम्यक् प्रकार से संयम के सौष्ठव से क्रमशः परम निवृत्ति को प्राप्त होता हुआ, जिसका रम्य उदय समस्त वस्तु समूह के विस्तार को लीलामात्र से प्राप्त हो जाता है, ऐसी शाश्वती ज्ञानानन्दमयी दशा का एकान्ततः अनुभव करो ॥२७०॥ ** इस प्रकार शुभोपयोगप्रज्ञापन पूर्ण हुआ । * अब पंचरत्न हैं ( पांच रत्नों जंसो पांच गाथायें कहते हैं ) यहां पहले, उन पांच गाथाओं की महिमा श्लोक द्वारा कहते हैं । श्लोकार्थ -- अब इस शास्त्र के कलगी के अलङ्कार जैसे (चूड़ामणि समान) यह पांचसूत्र रूप निर्मल पंचरत्न जो कि संक्षेप से अर्हन्त भगवान् के समग्र अद्वितीय शासन को सर्वतः प्रकाशित करते हैं वे विलक्षण पंथवाली संमार-मोक्ष की स्थिति को जगत के समक्ष प्रगट करते हुये जयवन्त हों । तात्पर्यवृत्ति अथोत्तमसंसर्गः कर्त्तव्य इत्युपदिशति तम्हा यस्माद्भीनसंसर्गाद्गुणहानिर्भवति तस्मात्कारणात् अधिवसद् अधिवसतु तिष्ठतु । स कः कर्ता ? समणो श्रमणः । क्व ? तम्हि तस्मिन्नधिकरणभूते णिच्च नित्यं सर्वकालम् । तस्मिन्कुत्र ? समणं श्रमणे लक्षणवशादधिकरणे कर्म पठ्यते । कथंभूते श्रमणे ? समं समे समाने । कस्मात् ? गुणादो बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयलक्षणगुणात् । पुनरपि कथंभूते ? अहियं वा स्वस्मादधिके वा । कः ? गुणेहि मूलोत्तरगुणः । यदि किम् ? इच्छदि जदि इच्छति वाञ्छति यदि चेत् । कम् ? दुक्खपरिमोक् वात्मोत्थसुखविलक्षणानां नारकादिदुःखानां मोक्षं दुःखपरिमोक्षमिति । संयोगाज्जलस्य शीतलगुणविनाशो भवति तथा व्यावहारिकजनसंसर्गात्संयतस्य संयमगुणविनाशो अथ विस्तरः- यथाग्निभवतीति ज्ञात्वा तपोधनः कर्त्ता समगुणं गुणाधिकं वा तपोधनमाथयति तदास्य तपोधनस्य यथा शीतलभाजनसहित शीतलजलस्य शीतलगुणरक्षा भवति तथा समगुणसंसर्गाद्गुणरक्षा भवति । यथा च तस्थैत्र जलस्य कर्पूरशर्करादिशीतलद्रव्यनिक्षेपे कृते सति शीतल गुणवृद्धिर्भवति तथा निश्वयव्यवहाररत्नत्रयगुणाधिकसंसर्गाद्गुणवृद्धिर्भवतोति सूत्रार्थः ॥ २७० ॥ उत्थानिका- आगे यह उपदेश करते हैं कि सदा ही उत्तम संसर्ग करना योग्य है अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तम्हा) इसलिये (जदि) यदि (समणो ) साधु ( दुक्ख परिमोषखं इच्छदि) दुःखों से छूटना चाहता है तो ( गुणाबो समं ) गुणों में समान ( वा गुह अहियं समणं) वा गुणों से अधिक साधु के पास ठहरकर ( चिचं ) सदा ( तम्हि ) उसी ही साधु की (अधिवसदु ) संगति करे। क्योंकि हीन साधु की संगति से अपने गुणों को हानि होती है । इसलिये जो साधु अपने आत्मा से उत्पन्न सुख से विलक्षण नारक आदि के दुःखों से मुक्ति चाहता है तो उसको योग्य है कि वह हमेशा ऐसे साधु की संगति करे जो निश्चय व्यवहाररत्नत्रय के साधन में अपने बराबर हो या मूल व उत्तर गुणों में अपने से अधिक हो । जैसे- अग्नि की संगति से जल के शीतल गुण का नाश हो जाता
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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