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पवयणसारो 1
अथ जीवस्यानवस्थितत्वहेतुमुद्योतयति
तम्हा दु त्थि कोई सहावसमबढिदो त्ति संसारे । संसारो पुण किरिया संसरमाणस्स दव्वस्स' ॥१२०॥ तस्मात्तु नास्ति कश्चित् स्वभावसमवस्थित इति संसारे ।
संसारः पुनः क्रिया संसरतो द्रब्यस्य ॥१०॥ यतः खलु जीयो द्रव्यत्येनावस्थितोऽपि पर्याय रनवस्थितः, ततः प्रतीयते न कश्चिदपि संसारे स्वभावेनावस्थित इति । यच्चानानवस्थितत्वं तत्र संसार एब हेतुः। तस्य मनुष्यादिपर्यायात्मकत्वात् स्वरूपेणैव तथाविधत्वात् । अथ यस्तु परिणममानस्य व्रष्यस्य पूर्वोत्तरदशापरित्यागोपादात्मकः क्रियास्यः परिणामस्तत्संसारस्य स्वरूपम् ॥१२॥
भूमिका—अब, जीव को अनवस्थितता का हेतु प्रगट करते हैं
अन्वयार्थ-[तस्मात् तु] इसलिये [संसारे] संसार में [स्वभावसमवस्थितः इति] स्वभाव से अवस्थित ऐसी [कश्चित् नास्ति। कोई (वस्तु) नहीं है, (अर्थात् संसार में किसी भी वस्तु का स्वभाव केवल एक रूप रहना नहीं है) [पुनः ] और (जो) [संसरतो द्रव्यस्य] (चारों गतियों में) भ्रमण करने वाले (जीव) द्रव्य की [क्रिया] (अन्य अवस्था रूप) परिणति है, (वही) [संसार:] संसार है।
टीका-क्योंकि वास्तव में जीव द्रव्यत्व से अवस्थित होने पर भी पर्यायों से अनवस्थित है, इससे यह प्रतीत होता है कि संसार में कोई भी (वस्तु) स्वभाव से अवस्थित नहीं है (अर्थात् किसी का स्वभाव केवल अविचल-एकरूप रहना नहीं हैं) और यहां (इस संसार में) जो अनवस्थितता है उसमें संसार ही हेतु है, क्योंकि उसके (संसार के) मनुष्यादि पर्यायात्मकपना है, कारण कि वह संसार रूप से हो वैसा (अनस्थित) है । (अर्थात् संसार का स्वरूप ही ऐसा है।) अब, परिणमन करते हुये द्रव्य का जो पूर्व दशा का परित्याग तथा उत्तर दशा का ग्रहण रूप क्रिया नामक परिणाम है, वह ही संसार का स्वरूप है ॥१२०॥
तात्पर्यवत्ति अथ विनश्वरत्वे कारणमपन्यस्थति, अथवा प्रथमस्थलेऽधिकारसत्रेण मनुष्यादिपर्यायाणां कर्मजनितत्वेन यद्विनश्वरत्वं सुचितं तदेव गाथात्रयेण विशेषेण व्याख्यातमिदानीं तस्योपसंहारमाह
तम्हा दु णस्थि कोई सहावसमबढिदो ति तस्मानास्ति कश्चित्स्वभावसमवस्थित इति । यस्मात्पूर्वोक्तप्रकारेण मनुष्यादिपर्यायाणां विनश्वरत्वव्याख्यानं कृतं तस्मादेव ज्ञायते परमानन्दैकलक्षणपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतशुद्धात्मस्वभाव बदस्थितो नित्यः कोऽपि नास्ति। क्व? संसारे
१. जीवस्स (ज० वृ०)।