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________________ [ पवयण सारों एव निश्चयरत्नत्रयात्मकनिश्चयमोक्षमार्गपर्यायेण विलयो विनाशस्तौ च मोक्षपर्यायमोक्षमार्गपर्यायौं कार्यकारणरूपेण भिन्नौ, तदुभयाधारभूतं यत्परमात्मद्रव्यं तदेव मृत्पिण्डघटाधारभूतमृत्तिकाद्रव्यवत् मनुष्यपर्यायदेवपर्यायाधारभूतसंसारिजीवद्रव्यवहा । क्षणभंगसमुद्भवे हेतुः कथ्यते । संभवविलओ त्ति ते णाणा सम्भवविलयौ द्वाविति तो नाना भित्री यतः कारणात्ततः पर्यायाथिकनयेन भंगोत्पादौ । तयाहि—य एव पूर्वोक्तमोक्षपर्यायस्योत्पादो मोक्षमार्गपर्यायस्य विनाशस्तावेव भिन्नौ न च तदाधारभूतपरमात्मद्रव्यमिति । ततो ज्ञायते द्रव्याथिकनयेन नित्यत्वऽपि पर्यायरूपेण विनाशोऽस्तीति ।।११।। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि द्रव्य की अपेक्षा जीवन नित्य है तथापि पर्याय की अपेक्षा विनाशीक या अनित्य है अन्वय सहित विशेषार्थ--(खणभंगसमुभवे जणे) पर्यायाथिकनय से क्षण-क्षण में नाश व उत्पन्न होता है ऐसे लोक में (कोई णेच जायदि ण णस्सदि) द्रव्याथिकनय से कोई जीव न तो उत्पन्न होता है और न नाश होता है। कारण (जो हि भवोसो विलओ) जो निश्चय से उत्पत्ति रूप है वही नाश रूप है। (ते संमय बिलयत्ति णाणा) वे उत्पाद और नाश भिन्न-मिन्न है। क्षण-क्षण में जहां पर्यायाथिकनय से अवस्था का नाश व उत्पाद होता है ऐसे इस लोक में कोई भी जीव द्रव्याथिकनय से न नया पैदा होता है, न पुराना नाश होता है । इसका कारण यह है कि पर्याय की अपेक्षा जो निश्चय से उपजे है वही नाश होय है । जैसे मुक्त आत्माओं का जो ही सर्व प्रकार निर्मल केवलज्ञानादि रूप मोक्ष की अवस्था से उत्पन्न होना है सो ही निश्चयरत्नत्रयमयी निश्चयमोक्षमार्ग को पर्याय की अपेक्षा बिनाश होना है। वे मोक्ष पर्याय और मोक्षमार्ग पर्याय यद्यपि कार्य और कारण रूप से परस्पर भिन्न-भिन्न हैं तथापि इन पर्यायों का आधार रूप जो परमात्मा द्रव्य है सो वही है, अन्य नहीं है। अथवा जैसे मिट्टी के पिण्ड के नाश होते हुए और घटके बनते हुए इन दोनों को आधारभूत मिट्टी वही है । अथवा मनुष्य पर्याय को नष्ट होकर देव पर्याय को पाते हुए इन दोनों का आधार रूप संसारी जीव द्रव्य वही है। पर्यायार्थिक नय से विचार करें तो वे उत्पाद और व्यय परस्पर भिन्न-भिन्न हैं। जैसे पहली कही हुई बात में जो कोई मोक्ष अवस्था का उत्पाद है तथा मोक्षमार्ग की पर्याय का नाश है ये वोनों ही एक नहीं हैं किन्तु भिन्न-भिन्न हैं । यद्यपि इन दोनों का आधार रूप परमात्मद्रव्य भिन्न नहीं है अर्थात् यही एक है इससे यह जाना जाता है कि द्रव्याथिकनय से द्रष्य में नित्यपना होते हुए भी पर्याय की अपेक्षा नाश है ॥११६॥
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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