SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 327
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पवयणसारो ] होने पर भी) मनुष्य-देव-तियंच-नारकात्मक जीव लोक, प्रतिक्षण परिणामी होने से, क्षणक्षण में होने वाले विनाश और उत्पाद से भी सहित हैं। यह विरोध को (भी) प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उद्भव और विलय का एकत्व और अनेकत्व है। जब उद्भव और विलय का एकत्व है तब पूर्वपक्ष है और जब अनेकत्व है तब उत्तरपक्ष है। (अर्थात्-जब उत्पाद और विनाश के एकत्व की अपेक्षा ली जाय तब यह पक्ष फलित होता है कि-'न तो जीव उत्पन्न होता है और मष्ट होता है और जन्म तस्माद र विनाश के अनेकत्व की अपेक्षा ली जाय तब प्रतिक्षण होने वाले विनाश और उत्पाद का पक्ष फलित होता है।) वह इस प्रकार है-जैसे-'जो घड़ा है वही कूडा है' ऐसा कहे जाने पर, घड़े और कूडे के स्वरूप का एकत्व असम्भव होने से, उन दोनों की आधारभूत मिट्टी प्रगट होती है, उसी प्रकार 'जो उत्पाद है वही विनाश है' ऐसा कहे जाने पर, उत्पाद और विनाश के स्वरूप का एकत्व असम्भव होने से उन दोनों का आधारभूत धौध्य प्रगट होता है, इसलिये देवादि पर्याय के उत्पन्न होने और मनुष्यादि पर्याय के नष्ट होने पर, 'जो उत्पाद है वही विलय है' ऐसा मानने से (इस अपेक्षा से) उन दोनों का आधारभूत ध्रौव्य वाला जीवद्रव्य प्रगट होता ही है (लक्ष्य में आता है)। इसलिये सर्वदा द्रध्यपने से जीव टंकोत्कीर्ण रहता है और फिर, जैसे—'अन्य घड़ा है और अन्य कुंडा है। ऐसा कहे जाने पर, उन दोनों की आधारभूत मिट्टी का अन्यत्व (भिन्न-भिन्नपना) असंभव होने के कारण घड़े का और कूडे का (दोनों का मिन्न-भिन्न) स्वरूप प्रगट होता है, उस ही प्रकार 'अन्य उत्पाद है और अन्य व्यय है' ऐसा कहा जाने पर, उन दोनों के आधारभूत ध्रौव्य का अन्यत्व असंभव होने से, उत्पाद और ध्यय का स्वरूप प्रगट होता है, इसलिये देवादि पर्याय के उत्पन्न होने पर और मनुष्यादि पर्याय के नष्ट होने पर अन्य उत्पाद है और 'अन्य व्यय है' ऐसा मानने से (इस अपेक्षा से), उत्पाद और व्यय वाली देवादिपर्याय और मनुष्याविपर्याय प्रगट होती है (लक्ष्य में आती है)। इसलिये जीव प्रतिक्षण पर्याय से अनवस्थित (भेवरूप) है ॥११॥ तात्पर्यवृत्ति अथ जीवस्य द्रष्येण नित्यत्वेऽपि पर्यायेण विनश्वरत्वं दर्शयति जायदि व ण णस्सदि जायते नव न नश्यति द्रव्याथिक्रनयेन । क्व ? खुणभंगसमुरुभवे अणे कोई क्षणभङ्गसमुद्भवे जने कोऽपि । क्षणं क्षणं प्रति भङ्गसमन्वो यत्र सम्भवति क्षणभङ्गसमुद्भवस्तस्मिन्क्षणभङ्गसमुद्भबे बिनश्वरे द्रध्याथिकनयेन जने लोके जगति कश्चिदपि, तस्मान्नैव जायते न चोत्पद्यत इति हेतु बदति जो हि भयो सो विलओ द्रव्याथिकनयेन यो हि भवस्स एव विलयो यतः आदतथाहि-मुक्तात्मनों य एव सकलबिमलकेवलज्ञानादिरूपेण मोक्षपयायेण भव उत्पाद.स
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy