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________________ पक्यणसारो 1 [ ४६३ टोका-(१) मोह का सद्भाव होने से तथा (२) ज्ञानशक्ति के प्रतिबंधक का (ज्ञानावरणीयकर्म का) सद्भाव होने से, (१) लौकिक जीव (छमस्थ) तृष्णा- सहित है तया (२) उसे पदार्थ प्रत्यक्ष नहीं हैं और (३) यह विषय को अवच्छेदपूर्वक (स्पष्टता से) नहीं जानता, इसलिये वह (लोक) अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ का ध्यान करता हुआ दिखाई देता है परन्तु घनघातिकम के नाश हो जाने के कारण (१) मोह का अभाव हो जाने पर तथा (२) ज्ञानशक्ति के प्रतिबंधक का अभाव हो जाने पर, (१) जिनकी तृष्णा नष्ट हो गई है तथा (२) (जिनको) समस्त पदार्थों का स्वरूप प्रत्यक्ष है तथा (जिन्होंने) ज्ञेयों का पार पा लिया है, इसलिये भगवान सर्वतदेव अभिलाषा नहीं करते, जिज्ञासा नहीं करते, और संदेह नहीं करते, तब फिर (उनके) अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ कहां से हो सकता है ? जबकि ऐसा है तब फिर वे क्या ध्याते हैं? ॥१६॥ तात्पर्यवृत्ति अथोपलब्धशुखात्मसत्त्वसकलज्ञानी किमतीति प्रानगाभेपद्वारेण पूर्वपक्षं बा करोति, णिहवघणघाइकम्मो पूर्वसूत्रोदितनिश्चल निजपरमात्मतत्त्वपरिणतिरूपशुद्धध्यानेन निहतघनघातिकर्मा । परचक्खं सबभावतच्या प्रत्यक्षं यथा भवति तथा सर्वभावतत्त्वज्ञः सर्वपदार्थपरिज्ञातस्वरूप: यंतगदो ज्ञेयान्तगतः ज्ञेयभूतपदार्थानां परिच्छित्तिरूपेण पारंगतः। एवं विशेषणत्रयविशिष्ट: समणो जीवितमरणादिसम भावपरिणतात्मस्वरूपः श्रमणो महाश्रमणः सर्वशः झादि कमळं ध्यायति कमर्थमिति प्रश्न: ? अथवा कमर्थं ध्यायति ? न कमपीत्याक्षेप: । कथंभूतः सन् ? असंदेहो असन्देहः संशयादिरहित इति । अयमत्रार्थः यथा कोऽपि देवदत्तो विषयसुखनिमित्तं विद्याराधनाध्यानं करोति यदा विद्या सिद्धा भवति तत्फलभूतं विषयसुखं च सिद्धं भवति तदाराधनाध्यानं न करोति, तथायं भगवानपि केवलज्ञानविद्यानिमित्तं तत्फलभूतानन्तसुखनिमित्तं च पूर्व छास्थावस्थायां शुद्धात्मभावनारूपं ध्यान कृतवान् इदानीं तयानेन केवलज्ञान विद्या सिद्धा तत्फलभूतमनन्तसुखं च सिद्धम् किमर्थ ? ध्यानं करोतीति प्रश्नः आक्षेपो वा, द्वितीयं च कारणं परोक्षेऽर्थे ध्यानं भवति भगवतः सर्वप्रत्यक्षं कथं ध्यानमिति पूर्वपक्षद्वारेण गाथा गता ।।१६७|| उस्थानिका-आगे शिष्य पूर्वपक्ष करके यह आक्षेप करता है कि शुद्धात्मतत्त्व को प्राप्त करके सकलज्ञानी परमात्मा किस वस्तु को ध्याते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ-(णिहदघणघाइकम्मो) सर्व घातियाकर्मों को नाश करने वाले (पच्चरखं) प्रत्यक्ष रूप से (सध्धमावतसचण्ह) सब पदार्थों के जानने वाले (णेयंतगदो) सब ज्ञेय पदार्थों के पार पहुंचने वाले (असंदेहो) तथा संशयरहित (समणो)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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