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________________ २४२ ] [ पवयणसारो अन्वयार्थ -- [ स्वभाव ] स्वभाव में [ अवस्थितं] अवस्थित सत् ] सत् [ द्रव्यं ] द्रव्य हैं [द्रव्यस्य ] द्रव्य का [ अर्थेषु ] गुणपर्यायों में [यः हि ] जो [स्थितिसंभवना शसंबद्धः ] उत्पादध्ययौव्य सहित [ परिणामः ] परिणाम है [ सः ] वह [ स्वभाव: ] उसका स्वभाव है । टीका- यहां (विश्व में ) वास्तव में स्वभाव में नित्य अवस्थित होने से सत् द्रथ्य है । स्वभाव द्रव्य का श्रव्य उत्पाद - विनाश को एकता स्वरूप परिणाम है । जैसे द्रव्य वास्तु के + समग्रता (अखण्डता से) एक होने पर भी विस्तार क्रम की प्रवृत्ति में वर्तने वाले सूक्ष्म अंश प्रदेश हैं, इसी प्रकार द्रव्य की वृत्ति ( द्रव्य परिणति, द्रव्य प्रवाह ) के, समग्रतया एक होने पर भी प्रवाह क्रम की प्रवृत्ति में वर्तने वाला सूक्ष्म अंश परिणाम है । जैसे प्रदेशों के परस्पर व्यतिरेक के कारण से होने वाला विष्कम्भ क्रम है, उसी प्रकार परिणामों के परस्पर व्यतिरेक के कारण से होने वाला प्रवाह क्रम है । जैसे प्रदेश अपने स्थान में स्व-रूप से उत्पन्न और पूर्व रूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एकवास्तुपने से अनुत्पन्न - अविनष्ट होने से उत्पत्ति संहार-व्यात्मक अपने स्वरूप को धारण करते हैं, उसी प्रकार वे परिणाम अपने अवसर में स्व-रूप से उत्पन्न और पूर्व रूप से विनष्ट होने से तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति से रचित एक प्रवाहने से अनुत्पन्न अनिष्ट होने से उत्पत्ति संहार - धीव्यात्मक अपने स्वरूप को धारण करते हैं । और जैसे जो पूर्व प्रदेश के विनाश रूप वस्तुका सीमान्त है, वही उसके बाद के प्रदेश का उत्पाद स्वरूप है तथा वही परस्पर अनुस्यूति से रचित एक वास्तुत्व से दोनों (उत्पाद-व्यय) स्वरूप नहीं हैं (ध्रुव हैं) इसी प्रकार जो ही पूर्व परिणाम के विनाश रूप प्रवाह का सीमान्त है, वही उसके बाद के परिणाम के उत्पादस्वरूप है, तथा यही परस्पर अनुस्यूति से रचित एक प्रवाहत्व से दोनों (उत्पाद - ध्यय) स्वरूप नहीं हैं (ध्रुव है ) । इस प्रकार स्वभाव से ही त्रिलक्षण परिणाम पद्धति में ( परिणामों की परम्परा में ) प्रवर्तमान द्रश्य स्वभाव का अतिक्रम नहीं करता, इसलिये सत्य को त्रिलक्षण हो अनुमोदित करना चाहिये मोतियों के हार की भांति । जैसे— जिसने (अमुक) लम्बाई ग्रहण की है ऐसे लटकते हुये मोतियों के हार में, अपने अपने स्थानों में प्रकाशित होते हुये समस्त मोतियों में, अगले- अगले स्थानों में अगले- अगले मोती प्रगट होते हैं इसलिये, और पहलेपहले के मोती प्रगट नहीं होते इसलिये तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति का रचयिता सूत्र + द्रव्य का वास्तु द्रव्यका स्व-विस्तार, द्रव्य का स्व क्षेत्र, द्रव्य का स्व-आकार, द्रव्य का स्त्रवल । ( वास्तु घर, निवासस्थान, आश्रय, भूमि ।)
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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