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________________ पवयणसारो ] [ २४३ अवस्थित होने से, त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धि को प्राप्त होता है। इसी प्रकार जिसने नित्यवृत्ति ग्रहण की है ऐसे रचित (परिणमित) होते हुये समस्त परिणामों में अगले अगले अवसरां पर अगले परिणाम प्रगट होते हैं इसलिये और पहले-पहले के परिणाम नहीं प्रगट होते हैं इसलिये तथा सर्वत्र परस्पर अनुस्यूति रचने वाला प्रवाह अवस्थित होंने से, त्रिलक्षणत्व प्रसिद्धि प्राप्त होती है ॥ ६६ ॥ तात्पर्यवृत्ति अथोत्पादव्ययश्रव्यत्वे सति सत्त्व द्रव्यं भवतीति प्रज्ञापयति--- I सठठदं सहावे दव्वं द्रव्यं मुक्तात्मद्रव्यं भवति । किं कर्तृ" ? सहित शुद्धतनान्यरूप भस्तित्वं । किविशिष्टं ? अवस्थितं । क्व ? रवभावे स्वभावं कथयति दव्वस्स जो हि परिणामो तस्य परमात्मद्रव्यस्य संबन्धी हि स्फुटं यः परिणामः केषु विषयेषु ? अत्थेसु परमात्मपदार्थस्य धर्मत्वादभेदन येनार्थी भयन्ते । के ते ? केवलज्ञानादिगुणाः सिद्धत्वादिपर्यायाश्च तेष्वर्थेषु विषयेषु यऽसौ परिणामः । सो सहाओ केवलज्ञानादिगुणसिद्धत्वादिपर्यायरूपस्तस्य परमात्मद्रव्यस्य स्वभावो भवति । स च कथंभूतः ? ठिविसंभवणासंबंधी स्वात्मप्राप्तिरूपमोक्षपर्यायस्य संभवस्तस्मिन्नेव क्षणे परमागमभाषयेकत्ववितर्क विचारद्वितीयशुक्लध्यानसंज्ञस्य शुद्धोपादानभूतस्य समस्त रागादिविकल्पोपाधिरहितस्य संवेदनज्ञानपर्यायस्य नाशस्तस्मिन्नेव समये तदुभयाधारभूतपरमात्मद्रव्यस्य स्थितिरित्युक्तलक्षणो पादव्ययश्रीन्यत्रयेण संबन्धो भवतीति । एवमुत्पादव्ययभौव्यय येणैकसमये यद्यपि पर्यायार्थिकनयेन परमात्मद्रव्यं परिणतं तथापि द्रव्याथिकनयेन सत्तालक्षणमेव भवति । त्रिलक्षणमपि सत्यतालक्षणं कथं भण्यत इति चेत् "उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तं सत्" इति वचनात् । यथेदं परमात्मद्रव्य मेक समयेनोत्पादव्ययपरिणतमेव सत्तालक्षणं भण्यते, तथा सर्वद्रव्याणीत्यर्थः ॥६६॥ एवं स्वरूपसत्तारूपेण प्रथमगाथाथा, महासत्तारूपेण द्वितीया, यथा द्रव्यं स्वतः सिद्धं तथा सत्तागुणोपीति कथनेन तृतीया, उत्पादव्ययीव्यत्वेपि सत्त्व द्रव्यं मध्यत इति कथनेन चतुर्थीति गाथाचतुष्टयेन सत्तालक्षणविवरणमुख्यतया द्वितीयस्थलं गतम् । उत्थानका — आगे कहते हैं कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप होते हुए सत्ता ही द्रव्य स्वरूप है अथवा द्रव्य सत् स्वरूप है अन्वय सहित विशेषार्थ - ( सहावे ) स्वभाव में ( अवदिट्ठदं ) रहा हुआ (सत् ) सत् ( धध्वं ) द्रव्य है । ( दव्वहस ) द्रव्य का ( अत्थेसु) गुण पर्यायों में (जो ) जो ( ठिदिसंभवणाससंबद्धो ) धौव्य, उत्पाद व्यय सहित परिणाम है (सो) वह (हि) ही (सहाथो ) स्वभाव है । स्वभाव में तिष्ठा हुआ शुद्ध चेतना का अन्ययरूप ( बराबर) अस्तित्त्व परमात्मा द्रव्य है । उस परमात्मा द्रव्य का अपने केवलज्ञानादि गुण और सिद्धत्व (यहाँ अरहंतपने से मतलब है ) आदि पर्यायों में अपने आत्मा की प्राप्ति रूप उत्पाद उसो ही "समय में परभागम की भाषा से एकत्व वितर्क अयीचाररूप दूसरे शुक्लध्यान का या
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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